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अहिल्या के लिए मत सोचना

प्राण तो प्राण हैं दृष्टि के गुलाम हैं
वजह नहीं हैं कदापि ,वजह के अंजाम हैं  
कभी प्रेम पुचकार प्रगाढ़ से
पाषाणी अजन्ता युगवाणी  बना गए
कभी तिरस्कार का तीर भेद  
प्रेयसी अहिल्या को पाषाणी बना गए
अहिल्या के लिए
कभी भी मत सोचना
जैसे ऋषिवर ने नहीं सोचा
परमात्मा ने तो हरगिज़ नहीं  
कि प्रतिलांच्छित पतिव्रता
निरपराध ,निराश्रय अहिल्या
आदतन नारी -धर्म तो निभाएगी
श्राप ले पाषाणी तो अवश्य हो जाएगी
पर तिरस्कृत प्राणों को कैसे बचाएगी
इस बोझिल जिम्मेवारी को कैसे उठाएगी
अब से तब तक
श्राप के अगले अध्याय तक
कितने तूफ़ान ,कितनी आंधियां
घनघोर अंधरे ,डराती  बिजलियाँ
कितनी थू थू कितने धिक्कार
नफरतों के घिनौने वार प्रहार
दिवस रैन दशक से शताब्दी  तक
सपाट युगों तक श्रापित सफर विस्तार
श्रापित देह शंकित  प्राण कैसे कब तक  छिपाएगी
पति - परमात्मा दोनों विजयी
सर झुका श्राप उठा
परित्यक्त हारी नारी
पाषाणी देहा हो गई
तब भी
प्राण सम्भाल लिए
सम्भालना ज़रूरी था
श्राप के अगले अध्याय तक
तब तक
जब तक युग  बीत नहीं जाते
प्रभु पुनः अवतरित हो नहीं जाते
क्योंकि
एक प्रभू से दुसरे प्रभू तक
अवसरण से अवतरण तक
प्रभुताई प्राकट्य पृष्ठभूमि हेतु
अहिल्या की उपस्थिती
नितांत  परम आवष्यक शर्त होती है
कोई भी हो काल , कोइ भी युग
पाषाण ह्रदय में प्राण बस एक परत होती है। .
मौलिक और अप्रकाशित
अमिता  तिवारी

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Comment by rajesh kumari on May 12, 2016 at 9:59am

खेद है इस प्रस्तुति पर देर से पँहुची ..मुग्ध कर गई आपकी ये प्रस्तुति नारी विडंबना को कितने सार्थक शब्द मिले हैं प्रस्तुति में |हार्दिक बधाई अमिता जी शुभकामनायें 

Comment by amita tiwari on May 3, 2016 at 6:47pm

मान देने के लिए हार्दिक आभार. 

Comment by रामबली गुप्ता on April 20, 2016 at 10:55am
वाह आदरेया बहुत ही शानदार लेखन
हृदयतल से बधाई स्वीकार करें।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 18, 2016 at 11:38am

बहुत खूब...........

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