पिताजी!उस कमजोर बकरी को जल्दी हृष्ठ-पुष्ट देखने की चाह में स्नेहवश बागीचे से अलग-अलग किस्म की पत्तियां लाकर लगभग जबरन खिलाने की कोशिश कर रहे थे।लेकिन वो ढीठ की बच्ची भूख शांत होने के बाद किसी चींज को मुंह तक ना लगा रही थी।ये देख वे खीज गये और बोले:
"अरी खा ले कम्बख्त!इतने किस्म की पत्तियां मुफ़्त में मिल रही हैं और तू भाव खा रही है ।"
"अजी!गुस्सा क्यों होते हो जी ! मुफ़्त माल है!वो क्या जाने?जानवर है जानवर, इंसान नहीं है "मां कनखियों से देख, छेड़ लेकर बोली।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया लघुकथा कही है राहिला जीI लघुकथा की पंच-लाइन तो नॉक आउट कर देने वाली है, पढ़कर आनंद आया, बहुत बहुत बधाईI
आदरणीया राहिला जी .... क्या बात!!!! इसे कहते हैं .....लघुकथा| बधाई|
सच में बहुत बढ़िया, वधाई आपको!
कुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कह दिया है .... तभी तो यह लघु कथा अच्छी बनी है। हार्दिक बधाई।
आदरणीया राहिला जी, मानवीय प्रवृत्ति को उभारती बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. आपने सटीक और सधी शैली में कथ्य के मर्म को शाब्दिक किया है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई
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