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नज़र इंसान की घातक हुई क्या?-- ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---122

 

नज़र इंसान की घातक हुई क्या?

अभी नासाफ़ थी, हिंसक हुई क्या?

 

भरोसा जिन्दगी से उठ गया जो

अचानक मौत की दस्तक हुई क्या?

 

हमारे पाँव चिपके जा रहे है

नदीम उनकी गली चुम्बक हुई क्या?

 

अँधेरा हो गया है झुग्गियों में

महल में फिर वही रौनक हुई क्या?

 

यहाँ दुःख आ गया जो ताल देने

किसी की कामना मोहक हुई क्या?

 

इबारत सा मुझे क्यों ताकता है?  

मेरी सूरत कोई पुस्तक हुई क्या?

 

यहाँ हर सिम्त बुत बिखरें हुए हैं

अकीदत आपकी पूजक हुई क्या?

 

सवेरे से बहुत खामोश घर है

वही फिर आपसी बकझक हुई क्या?

 

दलालों की तबस्सुम खिल रही है 

नज़र उनकी कहीं चस्मक हुई क्या?

 

ख़ुशी कमजर्फ की आजाद देखी

किसी की आरज़ू बंधक हुई क्या?

 

अचानक से ग़ज़ल फिर हो गई है

हमारी वेदना सर्जक हुई क्या?

 

सलीका क्या सुखन का, क्या बताएं?

हमारी लेखनी मानक हुई क्या?

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 3:10pm

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 

अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है---------- बढ़िया है आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 3:09pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2015 at 12:18pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , सभी अशआर बहुत सुन्दर कहे हैं , पूरी ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

अचानक से  , कहना मुझे सही लग रहा है , अचानक के बाद से की ज़रूरत नही रहती , वो अचानक आ गया , कहना पूर्ण है । अतः सही लगे तो आप , अचानक ही ग़ज़ल फिर हो गई है --  कह सकते हैं ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 20, 2015 at 10:13pm

आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत ही अच्छे अश’आर हुए हैं। दिली दाद कुबूल कीजिए


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 19, 2015 at 4:37pm

इबादत के लिए हो आज बैठे 

अचानक मौत की दस्तक हुई क्या?


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 18, 2015 at 12:25am

आदरणीय शिज्जु भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. ज़िन्दगी मौत वाला शे'र पर पुनः प्रयास करता हूँ. सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 18, 2015 at 12:24am

आदरणीय मनोज भाई जी, इन दिनों रिवायती अंदाज़ से अलग ग़ज़ल कहने का प्रयास कर रहा हूँ. आपका मुखर अनुमोदन आश्वस्तकारी है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 18, 2015 at 12:19am

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर, मुखर अनुमोदन हेतु आभार आपका. सादर 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 17, 2015 at 8:44pm
वाह आदरणीय मिथिलेशजी कमाल की ग़ज़ल कही है। बाकी अशआर की तुलना में ज़िन्दगी मौत वाला शे'र सपाटबयानी सा लग रहा है उसपे थोड़ा काम किया जाये तो यकीन मानिये बेहतरीन शे'र बनके उभरेगा
Comment by मनोज अहसास on September 17, 2015 at 8:28pm
आदरणीय सर बहुत बधाई
आपकी लेखनी मानक ही है हमारे लिए
इतने शेर लिखना एक ग़ज़ल में बेमिसाल भी है कमाल भी
वेदना तो सर हमेशा से सर्जक रही है

पता नहीं किस महान शाइर की ग़ज़ल है

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह

हमेशा की तरह आपने सहजता से मजबूत ग़ज़ल बांधी है
मै दिल से आपको बधाई देता हूँ
और हमेशा निर्देशन की इल्तज़ा करता हूँ
सादर

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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