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हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही --- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221-212

 

हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही

या यूं कहें कि पाक अकीदत नहीं रही

 

जाते कहाँ हरेक तरफ यार ही मिले

उनसे जुदा तो कोई रियासत नहीं रहीं

 

उसने सभी मुआमलात ख्व़ाब कह दिए

मेरी तो कोई बात हकीक़त नहीं रही

 

कितने बदल गए है सयाने ये आज के

बातों में उनके आज कहावत नहीं रही

 

दुनिया के वासिते तो हमेशा थे बे गरां

अब आपकी नजर में भी कीमत नहीं रही

 

ईमेल देख आज ये रुक्के ने कह दिया

कासिद को आज मेरी जरुरत नहीं रही

 

ए.सी. में बैठ के वो करें प्लान मुल्क का

अहले-वतन से इतनी इज़ाज़त नहीं रही

 

कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले

इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही

 

कल शाम क़त्ल उसका खुलेआम हो गया

जो मुतमइन रहा कि अज़ीयत नहीं रहीं

 

मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के

अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:57am

आदरणीय गिरिराज सर, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:56am

आदरणीय शिज्जु भाई जी, सिम्त का वज्न गलत ले लिया, सही कहा आपने. सुधारता हूँ. अभी जो सूझ रहा है उस अनुसार मिसरे को इस तरह कह सकते है-

जाते कहां हरेक तरफ यार है बसे 

ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:50am

आदरणीया राजेश दीदी, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:49am

आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी, आपको बहुत दिनों बाद मंच मंच पर सक्रीय देखना अच्छा लगा. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 10:48am

आदरणीय  कृष्ण भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद, सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2015 at 10:45am

आदरणीय मिथिलेश भाई , पूरी गज़ल बहुत खूब कही है , आपको हरेक शे र के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।


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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2015 at 10:41pm
बेहतरीन ग़ज़ल है आदरणीय मिथिलेश जी दा़द ओ मुबारक़बाद कुबूल फरमायें। एक बात और आपने सिम्त का वज्न 12 लिया है?

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Comment by rajesh kumari on September 10, 2015 at 10:10pm

वाह  व्वाह्ह्ह  शानदार ग़ज़ल 

इन अशआरो के लिए तो बारम्बार दाद हाजिर है 

कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले

इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही

 

 

मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के

अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही

बहुत बहुत बधाई मिथिलेश भैया 

 

Comment by ram shiromani pathak on September 10, 2015 at 5:40pm
मिथिलेश भाई बढ़िया ग़ज़ल हुई है।।हार्दिक बधाई आपको
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 10, 2015 at 8:52am

उसने सभी मुआमलात ख्व़ाब कह दिए

मेरी तो कोई बात हकीक़त नहीं रही

दुनिया के वासिते तो हमेशा थे बे गरां

अब आपकी नजर में भी कीमत नहीं रही

मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के

अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही

लाजव़ाब गजलल हुयी है आ० मिथिलेश सर! दाद ही दाद पेश हैं!

कृपया ध्यान दे...

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