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मसरूफ है दुआ करने-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1212--- 1122---1212---22

 

जरा खंरोच जो आई लगे सदा करने

कलम जो धड़ से है, जाएँ कहाँ दवा करने

 

उसे भरम है अदालत से फैसला होगा

मुआमले को लगे वो रफा-दफा करने

 

लहू से आज नहा के जो लौट आया है  

गया था शख्स शरीफों का घर पता करने

 

वो एक आस लगाए इधर उधर ताके

शरीफ भीड़ लगी है खुदा-खुदा करने

 

हुआ है अब्र का भी हाल घर के नल जैसा

जो पानी मांग लो लगता है ये हवा करने

 

हुई है बेटियां मसरूफ आज दफ्तर में

घरों में माएं भी मसरूफ है दुआ करने

 

वो एक बार गरीबों का भाग दे लेते

लगे जो दौलतों से दौलतें गुना करने

 

हुबाब, जिंदगी ‘मिथिलेश’ तिश्नगी, सपने

ये खातमे के लिए है,  नहीं जमा करने  

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 2:03pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपके अनुमोदन से आश्वस्त हुआ.  ग़ज़ल की सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 2:02pm

आदरणीया छाया जी, आपके मुखर अनुमोदन से दिल झूम गया.  ग़ज़ल की सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 10, 2015 at 9:32pm

हुई है बेटियां मसरूफ आज दफ्तर में

घरों में माएं भी मसरूफ है दुआ करने --  बहुत खूब !! आदरणीय मिथिलेश भाई , ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Chhaya Shukla on September 10, 2015 at 6:32pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी वाह्ह्ह्हह्ह्ह्हह
तीव्र मारक क्षमता से भरी है आपकी ग़ज़ल
हार्दिक बधाई स्वीकारें !
सादर नमन !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 10, 2015 at 10:31am

आ०  मिथिलेश जी

संदेह निवारण के लिए धन्यवाद . सचमु च  मेरा ध्यान  सर कलम होने  पर नहीं गया . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 11:55pm

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव  सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. //कलम जो धड से है --- यह कथन कुछ कम समझ में आया  // इस शेर के शाब्दिक अर्थ  इस तरह है -

जरा खंरोच जो आई लगे सदा करने
जो सिर कटा है वो  जाएँ कहाँ दवा करने

कलम जो धड से है --- जिसका धड़ से सिर कलम कर दिया है वह दवा करने कहाँ जाए 

आपने जो भारत भूषण जी की कविता उद्धृत की है उसमें कलम का तात्पर्य लेखनी से है. जब तक मन में आग है तब तक लेखनी जीवंत है.

जो अभाव की गोद पले वे गीत कुमार सजीले हैं 
जब तक मन में आग तभी तक होंठ कलम के गीले हैं 

सादर 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 11:42pm

आदरणीय  narendrasinh chauhan जी आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 11:42pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार. सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:18pm

आदरणीय मथिलेश जी ,बहुत सुन्दर गजल कही आपने . कलम जो धड से है --- यह कथन कुछ कम समझ में आया  I मेरी कल्पना में कलम की पूरा शरीर है --- भारतभूषण जी की एक कविता याद आ रही है ----जब तक मन में आग तभी तक होंठ कलम के गीले हैं , सादर.

Comment by narendrasinh chauhan on September 9, 2015 at 6:21pm

खूब सुन्दर रचना 

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