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मुम्बईया मजाहिया ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---1222-1222

 

सटक ले तू अभी मामू किधर खैरात करने का

नहीं है बाटली फिर क्या इधर कू रात करने का

 

पुअर है पण नहीं वाजिब उसे अब चोर बोले तुम  

न यूं रैपट लगा मामू कि पहले बात करने का

 

मगज में कोई लोचा है मुहब्बत हो गई तुमको

तुरत इकरार की खातिर उधर जज्बात करने का

 

धरम के नाम, अक्खा दिन नवें ड्रामें करे नल्ला

इसे बॉर्डर पे ले जाके, वहीं तैनात करने का

 

उधम करता है जो हलकट भगाने का उसे भीड़ू

सिटी का पीस वाला फिर अगर हालात करने का

 

कोई शाणा करे लफड़ा, तो दे कण्टाप पे लाफ़ा

कोई वांदा नहीं साला जिगर इस्पात करने का  

 

बहुत येड़ा हुआ बादल, सदाइच झोल करता रे

अपुन बोला मेरे भगवन नहीं बरसात करने का

 

बुरा टाइम भी हो तेरा मगर सब मामले सुलटा

अगर लाइफ जरा राप्चिक नवीं औकात करने का

 

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by shree suneel on September 1, 2015 at 11:13am
आदरणीय मिथलेश वामनकर सर, आपका ये प्रयोग, प्रयास अच्छा लगा. साथ ही इस पर आदरणीय सौरभ सर की विस्तृत टिप्पणी से भी कई बाते साफ हुईं.
बधाई आपको इस अलग अंदाज वाली ग़ज़ल के लिए.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 11:59pm

आदरणीय सौरभ सर, हज़ल को हास्य ग़ज़ल स्वीकारना इसके नाम के ध्वन्यार्थ के कारण भी हो सकता है. आपने बात स्पष्ट की तो हज़ल को थोड़ा बहुत समझ पाया हूँ. विधा के सभी आयामों और स्वरूपों को जानना एक अभ्यासी और रचनाकार दोनों ही हैसियत से नितांत आवश्यक है. मार्गदर्शन हेतु आपका आभार नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 11:56pm

जो बात ये चली तो चलाये, जरा चले 

ऐसी हो बात जाके ये मकसद को जा मिले 

ये आबशार-ए-इल्म जरा हर तरफ मुड़े 

ये एक दो को ही नहीं बेहद को जा मिले 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 31, 2015 at 11:53pm

हास्य ग़ज़लों को मजाहिया-ग़ज़ल या हास्य-ग़ज़ल तो कहते ही हैं. हाँ, जाने-अनजाने उन्हें ’हज़ल’ कह कर सम्बोधित किया जाता है, मेरा कुछ कहना उसको लेकर है. यानी, हज़ल वस्तुतः है क्या इसे हम अवश्य जाने ! 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 11:42pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 11:41pm

आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी, आपकी प्रशंसा मेरे लिए बहुत मायने रखती है. आपको यह पसंद आया लिखना सार्थक हुआ. मजाहिया रचना के गाम्भीर्य पर आपकी अनुमोदन करती सार्थक प्रतिक्रिया पाकर मन खुश हो गया. उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 31, 2015 at 11:30pm

आदरणीय समर साहब, मुझे भान है आपका इशारा मेरी ओर है. ऐसा जान लेना कोई मिलियन डॉलर प्रश्न है भी नहीं.

लेकिन इस मंच पर जानकारियों का आदान-प्रदान होना इस मंच की परिपाटी रही है. इसे कत्तई व्यक्तिगत तौर पर न लिया करें. यदि मैं अपनी जानकारी के लिहाज से गलत हूँ तो मुझे सुधारिये. अन्यथा सही को सही कह कर हम जिज्ञासु पाठकों-सदस्यों की जानकारी बढ़ायें. हाँ यह भी है कि मानना न मानना हर किसी को अपनी समझ के अनुसार ही है. हम स्वयं को आरोपित थोड़े न कर सकते हैं. इस ग़ज़ल के रचनाकार आदरणीय मिथिलेश भाई को क्या उपलब्ध करायी गयी जानकारी पहले से थी ? यदि हाँ और इसके बावज़ूद वे ’हास्य-ग़ज़ल’ को ’हज़ल’ कहना चाहें तो मुझे कुछ नहीं कहना. लेकिन बातों को अन्यथा फ़साना बनाना न कहें, आदरणीय. 

हुआ यह है कि कई सदस्य इस मंच पर आये तो हैं लेकिन इस मंच के वास्तविक माहौल से परिचित नहीं हो पाये हैं. कारण कई हैं. प्रमुख तो यही है कि कई वरिष्ठ सदस्य ही अत्यंत व्यस्त चल रहे हैं. अब हुआ यह है कि इस मंचकी सही तस्वीर खुल कर प्रकट हुई नहीं है. और, इसको भी एक साइट मात्र मान लिया जाता है, जहाँ रचनाएँ पोस्ट कर वाह-वाही ली या दी जाती है. जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. 

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 11:29pm

आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल के इस प्रयोग पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर मुग्ध हूँ. आपकी सराहना हेतु हार्दिक आभारी हूँ.  

यह भी अवश्य है कि ऐसे प्रयोग हेतु आपके द्वारा समय समय पर संकेत दिए जाते रहे है और मार्गदर्शित व प्रेरित भी किया जाता रहा है. भाषा की इस मुम्बईया शैली को फिल्मों के माध्यम से ग्रहण किया है. सभी शब्द किसी न किसी फिल्म से सुने हुए ही है. मैं व्यक्तिगत तौर पर कभी मुंबई नहीं गया हूँ इसलिए इस शैली पर साधिकार बात भी नहीं कर सकता. इतना अवश्य है कि ग़ज़ल विधा में रिवायती अंदाज़ से कुछ जुदा कुछ नया करने का मन बना तो यह प्रयास किया. इसे मेरी भाषिक मार्ग से आधुनिक बिम्बों को पाने की दौड़ कहा जा सकता है. आपने बताया कि  सूर्यभानु गुप्त जी एवं नीरज गोस्वामी जी द्वारा मुम्बईया लहजे में ग़ज़ल कही है और मकबूल भी हुई है, उन्हें सम्मान भी मिला है, ये जानकार थोड़ा आश्वस्त हुआ हूँ. इस ग़ज़ल को प्रस्तुत करते हुए यह भय भी सता रहा था कि इसे इस विधा के साथ खिलवाड़ जैसी संज्ञा न मिल जाए. क्योकिं यह भी अवश्य है स्थापित विधाओं में प्रयोग और विधा के स्वरुप को विकृत करने जैसा अंतर बहुत महीन हुआ करता है. फिर यह कहते भी देर नहीं लगती है कि यह क्या मज़ाक है ? खैर ...... फिलहाल सकारात्मक और प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाओं से आश्वस्त हुआ हूँ.

आदरणीय समर कबीर जी ने इसे  सिन्फ़-ए-सुख़न को (विधा) उर्दू में "हज़ल" कहते हैं, कहते हुए स्वीकार किया है. हज़ल के विषय में मेरी जानकारी निरंक रही है. इसलिए आदरणीय समर जी जैसे उस्ताद से जानकारी मिलना मेरे लिए नई और उतनी ही सीख थी जितनी उनके द्वारा बताई गई. हज़ल का शाब्दिक अर्थ हास्य ग़ज़ल हो सकता है, इस अनुमान के साथ मानते हुए इसे मेरे द्वारा स्वीकार किया गया है. आपने इस विषय पर विस्तृत जानकारी दी और ग़ज़ल और अदब पर निर्विवाद एवं स्वयंसिद्ध हस्ताक्षर  अयोध्या  प्रसाद गोयलीय (शेरोसुखन, भाग १, पाठ - उर्दू शायरी पर एक नज़र) के हवाले से  कई बातें स्पष्ट की. यकीनन आदरणीय गोयलीय जी जैसे अदीब 'हज़ल' के अंतर्गत अश्लील रचनाओं का होना बताते है तो मैं अपनी मजाहिया ग़ज़ल को केवल ग़ज़ल ही कहना उचित मानता हूँ और स्वीकार करता हूँ. यह भी अवश्य है कि शिल्प की दृष्टि से यह एक ग़ज़ल है और आंचलिक भाषा के आधार पर इसे कोई और नाम नहीं देना ही उचित है. जहाँ तक इसे मजाहिया ग़ज़ल कहने का मेरा उद्देश्य ग़ज़ल में शाब्दिक चुहल और हास्य का पुट होने के कारण यह नाम दिया है. 

हज़ल पर चूंकि मेरी जानकारी बिलकुल कम है इसलिए इस विषय पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कह सकता. आदरणीय समर कबीर जी से निवेदन है कि इस विषय पर मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें. 

सादर 

Comment by Samar kabeer on August 31, 2015 at 11:09pm
"इक लफ़्ज़ था कि जिससे ख़फ़ा आप हो गए
इक बात थी कि जिसका फ़साना बना दिया"
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 31, 2015 at 10:08pm
वाह भई वाह ! बहुतै सुन्दर। बधाईय बधाई, प्रिय मिथिलेश भाई , सादर।

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