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गलीज़ आदत टला-टली है -- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

121-22---121-22---121-22---121-22

 

नसीब को जो कभी न रोया, उसी को किस्मत फली-फली है

जो काम आये तुरंत कर लो,  गलीज़ आदत टला-टली है

 

कुछ इस तरह से मुहब्बतों के तमाम किस्से अब आम होते 

जरा - सी सरगोशियाँ हुई फिर हजार बातें चली-चली हैं

 

ज़हीर देखे, जहान देखा, पयाम समझे, बयान है ये-  

जफ़ा का आलम बुरा-बुरा है, वफ़ा की दुनिया भली-भली है

 

तमाम आजादियों के परचम, गुजर गए फिर समझ ये आया

किसी का जूता हमारे सर पे, हमारी दुनिया तली-तली है

 

जरा ये सोचों कि यार मेरा भी किस कदर का हसीन होगा  

किसी को मेरी खबर नहीं है, उसी का चर्चा गली-गली है

 

कयाम कैसा, दयार किसका, मकां न कोई, मकीं न कोई

कहाँ ठिकाना हमें मिलेगा, नसीब अपना कबायली है

 

कोई भी आये, कोई भी देखें. पसंद या ना-पसंद कह दे

अजीब सी इन रिवायतों में हरेक बेटी छली-छली है

 

जमीन किसकी, जहान कैसा, नसीब किसका, निजाम कैसा ?

फसल में गेहूं उगाया जिसने, उसी की रोटी जली-जली है

 

कबीर के है भजन दिलों में, ग़ज़ल रगों में है राबिया की

नयन में कान्हा बसे हुए है,  लबों पे मेरे अली-अली है

 

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 4:47pm

आदरणीय पंकज जी ग़ज़ल की सराहना के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by Saurabh Pandey on August 28, 2015 at 2:40pm

जहाले मसकीं मकुन तग़ाफ़ुल दराये नैना बनाये बतियाँ ..  अमीर खुसरो की आत्मा आज जरूर निहाल हो गयी होगी. 
अंत तक आते-आते कई शेर संग्रहणीय हो गये हैं.

शुभ-शुभ

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 28, 2015 at 1:39pm

आदरणीय मिथिलेश जी, एक से बढ़कर एक शे’र हुए हैं। इनके तो कहने ही क्या

जरा ये सोचों कि यार मेरा भी किस कदर का हसीन होगा  

किसी को मेरी खबर नहीं है, उसी का चर्चा गली-गली है

 

कयाम कैसा, दयार किसका, मकां न कोई, मकीं न कोई

कहाँ ठिकाना हमें मिलेगा, नसीब अपना कबायली है

 

कोई भी आये, कोई भी देखें. पसंद या ना-पसंद कह दे

अजीब सी इन रिवायतों में हरेक बेटी छली-छली है

 

जमीन किसकी, जहान कैसा, नसीब किसका, निजाम कैसा ?

फसल में गेहूं उगाया जिसने, उसी की रोटी जली-जली है

दाद कुबूल कीजिए

Comment by Harash Mahajan on August 28, 2015 at 1:12pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी बहुत ही बेहतरीन और मुश्किल बहर पर आपने ये गज़ल  फरमाई है सर.....इसको गाकर जब देखा तो तबियत खुश हो गई |
मुताक़रीब मुसम्मन मुज़ाफ़ मक्बुज़ असलम
इस पर एक गाना है सर .....
न जाओ सईयाँ छुड़ा के बईयाँ कसम तुम्हारी मैं रो पडूँगी |
पूरी की पूरी ज़हन में उतर गयी ....दिल से निकली दाद कबूल कीजियेगा !!

सादर !!

Comment by narendrasinh chauhan on August 28, 2015 at 10:29am

कबीर के है भजन दिलों में, ग़ज़ल रगों में है राबिया की

नयन में कान्हा बसे हुए है,  लबों पे मेरे अली-अली है सुन्दर ग़ज़ल 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2015 at 10:16am
अगर कहें शेर फलां है बेहतर, तो बात बिल्कुल भली नहीं है।
ग़ज़ल की बगिया वरायटी से,भरी है कोई कमीं नहीं है।।

बहुत बहुत बधाइयाँ और नमन्

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