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ग़ज़ल - आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या ( गिरिराज भंडारी )

2122 1212    112 /22

डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या

और अगर बच नहीं सकी तो क्या

 

देख क्या आदमी ही जीता है ?

आदमी में है आदमी तो क्या

 

जब कहे को नही समझते हैं 

रह गई बात अनकही तो क्या

 

भूख आदाब कब  समझती है

बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या  

 

जारी फिर चाँद ने किया फतवा

बे असर चाँदनी रही तो क्या

 

फूल पत्तों में आज खुशियाँ हैं

जड़ अँधेरों से है घिरी तो क्या

 

दुन्दुभी ही उधर से बजती है

आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या

 

मेरी बस्ती में धूप है काइम

हो कहीं और चाँदनी तो क्या

 

और क्यों आपको नहीं लगते ?

मै ज़रा सा हूँ मजहबी तो क्या

****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2015 at 9:43am

आदरणीय आशुतोष भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 24, 2015 at 12:55am

जब कहे को नही समझते हैं 

रह गई बात अनकही तो क्या

दुन्दुभी ही उधर से बजती है

आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या

 

मेरी बस्ती में धूप है काइम

हो कहीं और चाँदनी तो क्या....आदरणीय गिरिराज भाईसाब इस बेहतरीन ग़ज़ल के इन शेरो के लिए बिशेस रूप से बधाई स्वीकार करें सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2015 at 5:14pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2015 at 5:13pm

आदरणीय हर्ष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2015 at 5:12pm

आदरणीया ममता जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2015 at 5:11pm

आदरणीया कांता जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2015 at 5:09pm
आदरणीय शिज्जु भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2015 at 4:25pm

भूख आदाब कब  समझती है

बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या  ---आदाब और अदब ---क्या बात है . बधायी हो मित्र

Comment by Harash Mahajan on August 21, 2015 at 1:09pm
आ0 गिरिराज जी बहुत ही उम्दा पेशकश रही । शेर दर शेर दाद वसूल पाइएगा । साभार ।
Comment by Mamta on August 21, 2015 at 10:53am
भूख आदाब कब समझती है
थोड़ी बेअदब हो गई तो क्या!
बहुत सुंदर आदरणीय गिरीराज जी
सम्पूर्ण ही लाजवाब! मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी गज़ल।
सादर ममता

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