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हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए, (गजल)

2122 2122 2122 212


हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए,
चल रहा मंथन बहुत कुछ तो निकलना चाहिए।


आग यह कबसे दबायी है अभी अंतर सुनो,
कब तलक सुलगे उसे अब तो धधकना चाहिये।


बेइमां अब साहिबां सब क्यूँ हमारे हो गये?,
आज एक उनमें कहीं वाजिब निकलना चाहिये।


है सड़क से राह ले जाती सियासत तक अभी,
अब तुझे भी आप ही घर से निकलना चाहिये।


ले गये सब मोड़ते नदियाँ कहाँ ये बावरे?
इक नदी का रुख अभी भी तो बदलना चाहिये।


क्षीण कितनी है नदी की धार देखा कीजिये,
वक्त है अब तो हमें थोड़ा सँभलना चाहिये।


मेड़ अबतक तो बनाते हैं रहे सब ताज़दाँ,
आ चलें अंधी गुफा से अब निकलना चाहिये।

.
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on July 26, 2015 at 12:12pm

वाह आदरणीय वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने   .... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं। 

Comment by मनोज अहसास on July 26, 2015 at 10:39am
बहुत खूब
बेहतरीन
सादर
Comment by Samar kabeer on July 26, 2015 at 10:30am
जनाब मनन कुमार सिंह जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
दो मिसरों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-

(1)"साहिबां मुंतखिब हो सब क्यों न-ईमां हो गये"

:-ये मिसरा लय में नहीं है ख़याल शब्दों के जाल में उलझ कर रह गया है,स्पष्ट नहीं है ,मेरी समझ में नहीं आया इस मिसरे में आप क्या कहना चाहते हैं ?

(2)"सड़क से है राह ले जाती सियासत तक अभी"

:- इस मिसरे की भी लय बाधित हो रही है,इस मिसरे की तरतीब पलट देंगे तो सही हो जाएगा :-

"है सड़क तक राह ले जाती सियासत तक अभी"

बाक़ी शुभ-शुभ ।

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