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किन्तु इनका क्या करें ? (नवगीत) // -सौरभ

खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?

क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे..
क्या यहाँ है ?

बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?

मात्र पद्धतियाँ दिखीं  
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
क्या करे मंथन
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई

एक नचिकेता नहीं
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?

सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है

फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
****************************
-सौरभ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 1389

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 11:01pm

भाई आदित्यजी, आपको रचना की पंक्तियाँ अच्छी लगीं यह जानना मुझे भी संतुष्ट कर रहा है.
हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 11:00pm

आदरणीय मोहन सेठी इंतज़ार जी, प्रस्तुति पर आने केलिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 10:58pm

आदरणीय मिथिलेश भाईजी, आपकी रचनाधर्मिता के प्रति मन में आदर के भाव हैं. आप जिस ढंग से इस रचना की पंक्तियों को खोलते गये हैं वह आपके अध्ययन और जानकारियों को ही साझा कर रहा है.
इस तरह से टिप्पणियाँ यदि नये सदस्य-रचनाकार दें तो एक रचनाकार होने के कारण हमें भी संतोष होता. लेकिन, सप्रसंग टिप्पणियाँ बहुत कुछ उजागर भी करती हैं. यहीं पाठक छुपना चाहता है.
आपकी सदाशयता और अध्ययनप्रियता के प्रति सम्मान के भाव रखते हुए आपको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ.
शुभ-शुभ

Comment by मनोज अहसास on July 5, 2015 at 10:34pm
मैं प्रयास करूँगा सर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 9:11pm

भाई मनोज अहसासजी, इस कविता को पढ़ने के अलावा भी आप अध्ययन करें. रचनाकर्म अभिव्यक्ति संप्रेषण ही है. परन्तु यह अध्ययन की चाहना रखता है. उसी तरह रचना-वाचन भी अध्ययन की अपेक्षा रखता है.
शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 9:10pm

आदरणीय सुशील सरनाजी, आपके औदार्य के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 5, 2015 at 7:33pm

आदरणीय सौरभ सर ..आपकी रचनाओं में जबरदस्त चिंतन होता है एक बार पढने से प्रतिक्रिया करने की स्थिति में मैं अपने को असमर्थ पा रहा हूँ आदरणीय मिथिलेश जी ने काम काफी आसान कर दिया है अभी दो चार बार पढूंगा -

मात्र पद्धतियाँ दिखीं  
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई 
क्या करे मंथन 
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई..............................

जब-तब लहर-सी 
तर्जनी की चेतना से, 
ताड़ती है आँख जिसको 
देह-बन्धन की कड़ी है

फिर दिखी है रात जागी 
या बजा है फिर सवा.. 
किन्तु इनका क्या करें ? 
*************************इन पंक्तियों पर अभी भी उलझा हूँ ..अभी एक दो बार और पढना पड़ेगा ..इस शानदार नवगीत के लिए आपको तहे दिल बधाई सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 5, 2015 at 3:50pm

आ० मिथिलेश सर की टिप्पणी से बहुत कुछ स्पष्ट हुआ! आ० लाजवाब रचना हुयी है हार्दिक बधाई!

सादर.

Comment by वीनस केसरी on July 5, 2015 at 1:27am

अति सुन्दर ....

Comment by Aditya Kumar on July 4, 2015 at 7:04pm

बहुत ही बढ़िया भावोद्भव। बधाई आदरणीय अग्रज श्री सौरभ जी।  निम्नलिखित पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी 

क्या पता आये न बिजली 

देखना माचिस कहाँ है 
फैलता पानी सड़क का 
मूसता चौखट जहाँ है 
सिपसिपाती चाह ले 
डूबा-मताया घुस रहा है 
हक जमाता है धनी-सा 
जो न सोचे.. 
क्या यहाँ है ?

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