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ग़ज़ल - फिल बदीह -- घटी है दरमिय़ाँ दूरी , किसी के दूर जाने से ( गिरिराज भंडारी )

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मुहब्बत कब छिपी है चिलमनों की ओट जाने से

नज़र की शर्म कह देगी तुम्हारा सच जमाने से 

 

अरूजी इल्म में उलझे नहीं, बस शादमाँ वो हैं

हमे फुरसत नहीं मिलती कभी मिसरे मिलाने से

 

उदासी किस क़दर दिल में बसी है क्या कहें यारों

बस अश्कों का बहा दर्या है दिल के आशियाने से 

 

अकड़ने से बढ़ा हो क़द , मिसाल ऐसी नहीं, लेकिन 

झुके हैं  बारहा  लेकिन किसी के  सर झुकाने से

 

कभी ये भी  हुआ है प्यार के रस्ते में , जादू सा

घटी है दरमिय़ाँ दूरी , किसी के दूर जाने से...

 

तो इक़रारे मुहब्बत क्या ज़बानी भी ज़रूरी है
ख़मोशी में अयां है सब, छिपा क्या है ज़माने से

**********************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 2, 2015 at 3:17pm

अकड़ने से बढ़ा हो क़द , मिसाल ऐसे नहीं, लेकिन
झुकी है भीड़ निश्चित ही किसी के सर झुकाने से
अजूबा भी हुआ है प्यार के रस्ते में , यूँ यारों
घटी है दरमिय़ाँ दूरी , किसी के दूर जाने से
ये इक़रारे मुहब्बत, क्या ज़बाँ से भी ज़रूरी है
ख़मोशी जब बयाँ करती है किस्सा कब जमाने से...इस उम्दा ग़ज़ल के इन तीन शेरो के लिए बिशेस रूप से बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज भाईसाब सादर

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 2, 2015 at 1:30pm

बहुत ही लाजवाब मतला हुआ है आ०, दिल झूम झूम गया!!

इस बेहतरीन गज़ल पर शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं आदरणीय!

Comment by Shyam Narain Verma on July 2, 2015 at 12:25pm
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

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