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इस बार बनवास सीता को मिला था। पीत वस्त्र धारण कर श्री राम और लक्ष्मण भी बन गमन हेतु तैयार खड़े थे। लेकिन सीता जी ने लक्ष्मण को साथ चलने से साफ़ मना कर दिया। अश्रुपूर्ण नेत्र लिए भरे हुए गले से लक्ष्मण ने पूछा: 

"क्या हुआ माते ?"
"कुछ नहीं हुआ लक्ष्मण,  तुम अयोध्या में ही रहोगे।" 
"मुझ से कोई भूल हो गई क्या ?"
"भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ।"
"भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"
"उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।"  

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by shashi bansal goyal on June 18, 2015 at 4:25pm
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आद0 योगराज जी । मुझे इसे महाकाव्य की पात्रा उर्मिला ने सबसे अधिक छुआ है । उसका त्याग सबसे बड़ा त्याग था । समाज ने जितना सीता को पूजा है तुलनात्मक रूप से उर्मिला बहुत पीछे छूट गई है ।एक स्त्री के जीवन में सबसे बड़ा सुख पति का साथ ही होता है बाकि सब नगण्य है ।हार्दिक धन्यवाद इस पात्रा को उभारकर प्रस्तुत करने हेतु ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 18, 2015 at 3:35pm

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी  ,उर्मिला का  दुःख समझने और  उसे ( एक बार ) मुक्त करने के प्रयास के लिए बधाई.

राम का बनवास सिर्फ राम के लिए सजा नहीं थी , दशरथ, कौशल्या, लक्ष्मण, उर्मिला, सुमित्रा और  जाने किस किस के लिए सजा थी , साथ में 

सभी अयोध्यावासियों के लिए भी थी.  ....  सजा तो कैकयी के लिए भी थी, …… राम - कथा का यह सन्देश भी है कि किसी निर्दोष को जब सजा मिलती है, तो वास्तव में वह बहुत बहुत लोगों के लिए होती  है ,स्वयं षणयन्त्रकारी के लिए खुद भी. 

सादर. 

Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 3:02pm
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , बहुत ही सुंदर प्रसंग का यहाँ आपने संक्षिप्तिकरण के साथ कथा के सार का एक व्यापक समीकरण को दर्शाया है । उर्मिला प्रसंग बहुत ही करूण गाथा है । आपके द्वारा उक्त पंक्तियों ने कि ----

"नजरों वाली धनुष-कटारी
गुनती रात अकेली सारी
निठुर न कोई उनके जैसा
किसके आगे किस्मत हारी..

किससे बोलूँ
किन शब्दों में..
क्या मेरे हालात ?  
ओ बेला, कुछ तो कहो........------ पूर्ण कर दिया समस्त कथा का सार ।
नमन श्री आपको

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 18, 2015 at 2:39pm

पुरुष-सत्तात्मक वैचारिकता उन क्लिष्ट मनोभावों तथा उन दशाओं को नहीं समझ पाती जिनसे गुजरते हुए एक स्त्री को दैनिक रूप से ’बर्ताव’ निभाना होता है. यह अवश्य है, कि ऐसी भावदशाओं के परिदृश्यों को एक समय से ललित शब्द एवं वर्णन मिलते रहे हैं - ’आगे-आगे राम चन्नन.. पाछू-पाछू डोलिया.. तासे पाछू लछमन हो भाय..’  

किन्तु, उर्मिला जैसी एक अर्द्धांगिनी, जिसके लिए सीता की तरह स्वयं पर अधिकार जता पाना तक संभव नहीं हुआ  --नहीं हो पाया--  चौदह वर्ष तपती रही. हा !

उर्मिला का यह आत्मकथन कितना कचोट कर बहिराया होगा -

कमल, तुम्हारा दिन है, और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,
कोई हताश क्यों हो, आती सब की समान वारी है। ........ (’साकेत’ से ; मैथिली शरण गुप्त)

इसी तपन को मैंने भी अस्फुट पंक्तियाँ देने का प्रयास किया है, आदरणीय -  

नजरों वाली धनुष-कटारी
गुनती रात अकेली सारी
निठुर न कोई उनके जैसा
किसके आगे किस्मत हारी..

किससे बोलूँ
किन शब्दों में..
क्या मेरे हालात ?  
ओ बेला, कुछ तो कहो !

स्त्री की दशा को एक स्त्री ही समझ सकती है यदि वस्तुतः समझना चाहे. इस बिम्बात्मक लघुकथा की जीवनी स्त्री-शक्ति के आत्माभिमान से अभिसिंचित एवं अनुप्राणित होती है.
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराजभाईजी.
सादर

Comment by विनोद खनगवाल on June 18, 2015 at 2:11pm
जी आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी। उर्मिला की आंखों में झांकने के बाद स्पष्ट हो गया है। आदरणीय योगराज जी बहुत शानदार लघुकथा। बधाई स्वीकार करें।
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 2:09pm
इसबार वनवास सीता की थी इसलिए कई लोगों को दर्द से मुक्ति मिलने के आसार है । माँ जहाँ तक संभव स्वंय पर ही सारी विपदाओं को सहन करती है । नारी ने नारी होने का दर्द जाना है इस कथा में ...... जब भी घर का संचालन नारी के हाथों में होता है वहां संस्कार और सहिष्णुता का निवास होना ही है । वो स्वंय का हित त्याग परहित का निर्माण करती है । बहुत ही सुंदर प्रसंग पूज्यनीय योगराज प्रभाकर सर जी .......नमन श्री आपको
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 18, 2015 at 1:59pm

चन्द पंक्तियो में आधा ‘साकेत’ लिख दिया आपने। सुन्दर, सटीक, लघुकथा। बधाई स्वीकारें आदरणीय योगराज जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 18, 2015 at 1:49pm

ग़ज़ब !
आदरणीय पुनः आता हूँ.

आदरणीय विनोद खनगवाल जी से सादर -

"उर्मिला के हृदय में झाँकेंगे तो सब समझ जाएँगे, विनोद खनगवाल ! "

Comment by विनोद खनगवाल on June 18, 2015 at 1:43pm

आदरणीय योगराज जी लघुकथा कुछ समझ नहीं आई आखिर कहना क्या चाहते हैं?

Comment by Pankaj Joshi on June 18, 2015 at 1:28pm

उर्मिला के हृदय में झांकोगे तो समझ जाओगे। सर बहुत ही सुंदर सरल शब्दों में आसानी से कथा कह दी आपने । सादर

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