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प्रश्नचिह्न के घेरे में (लघुकथा )

"तुमने जन्म देकर कोई एहसान नहीं किया है ..! क्या हमनें कहा था कि हमें इस दुनिया में लाओ ..? एक ब्रांडेड टी - शर्ट के लिए तो तरसते है हम .... अगर परवरिश करने की ताकत नहीं थी तो पैदा करने से पहले सोचना था ना ... अब हमारा क्या ...? "
"इसलिए तो सब घरबार बेचकर तुम्हारा एडमिशन इतने बडे़ काॅलेज में करवाया है कि तुम अपने बच्चों को वो सब दो जो हम ना दे सकें तुम्हें । "
"कितना शर्मिंदा होता हूँ वहाँ कालेज में इन साधारण कपडों में ... कितना अच्छा होता कि मै पढ़ाई ही नहीं करता ..! "


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 2:55am

सटीक और सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई आदरणीया कांता जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 25, 2015 at 12:44am

इस लघुकथा पर आना कई बातों के उघड़ जाने का कारण बन रहा है.


पहली बात तो यही जो लघुकथा का कथ्य सामने लाता है. बच्चों को किन भावनाओं की ओट मिल रही है ? माता-पिता और बच्चों या अन्य पारिवारिक सदस्यों के बीच आत्मीयता का वह भाव बड़ी तेज़ी से रिसता जा रहा है. पारस्परिक स्नेह के क्रम में वस्तु क्यों आती है ? इस पर किसे ने सोचा है ? क्या आज ग़िफ़्ट का मूल्य ही हमारे उत्कट प्रेम का परिचायक नही हो गया है ? इसे किसने प्रश्रय दिया है ? खाने-पीने की कोई बाज़ारू वस्तु या कोई बाज़ारू ग़िफ़्ट हमारे या हमारे बच्चों के गले आकर चिपक नहीं जाते कि हमें ले ही लो, अन्यथा हम आत्मदाह कर प्राण त्याग देंगे. वो पति-पत्नी या माता-पिता हम ही होते हैं कि उनके प्रति लालायित हुए अपनी आर्थिक और पारिवारिक सीमाओं एवं क्षमताओं का अतिक्रमण करते हैं. इसी कारण, बाज़ार आज हमारे घर के कितने अन्दर तक आ गया है, इसका हमें अहसास तक नहीं हुआ. आज जब उसके दंश को हम भोगने लगे हैं तो हालत खराब हो रही है.


दूसरी बात, बच्चों को अपनों या बड़ों के प्रति आदर-सम्मान, परम्पराओं के सार्थक और सकारात्मक मूलभूत विन्दुओं तथा जीवन में नैतिकता की आवश्यकता से किसने वंचित किया है ? बच्चों को सफलता और सफल होने के नाम पर किसने रुपया छापने की मशीन बन जाने को उकसाया ही नहीं दबाव भी बनाया है ? हमने ! जब अपना बच्चा इन्हीं कुछ को आत्मसात कर युवा और फिर वयस्क बना हमारे साथ नकारात्मक बर्ताव करता है, तो हम तुरत अपनी परम्पराओं और नैतिकता की खोल में निर्लज्ज की तरह छुपने लगते हैं, जिन परम्पराओं और नैतिकता को उस बच्चे ने जाना-समझा ही नहीं है, न हमने कभी उसे जानने दिया है. फिर अपना बच्चा युवा या वयस्क हुआ कोई अनर्गल प्रश्न करता है, तो दोष बच्चे का होता है, मैं मानता ही नहीं. हमें हमारा बच्चा आगे वही कुछ दिखता है जिसके हम पात्र होते हैं.

यह किसी लघुकथा की सफलता ही होती है जो पाठकों को उनकी भावदशा के साथ अभिव्यक्त होने को बाध्य करती है. आदरणीया कान्ताजी, कथ्य प्रस्तुतीकरण के नज़रिये से इस सफल लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाएँ.
सादर

Comment by kanta roy on June 22, 2015 at 8:07am
कथा पंसदगी के लिए तहे दिल से आभारी हूँ मै आपकी आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
Comment by kanta roy on June 22, 2015 at 8:05am
आदरणीया राजेश कुमारी जी आप बिलकुल सही कह रही है कि वक्त आ गया है अब कि पहले हम अपनी हैसियत देखे फिर हम बच्चों को जन्म दें । बडी विकट परिस्थितियाँ है ।बच्चों की आस्तित्व की रक्षा और उनके अभिव्यक्ति को मुखर करने की अब भयानक परिणाम सामने आ रहे है । कहते थे कि बच्चों को दबा कर नहीं रखना चाहिए । उनके साथ दोस्त बनकर रहना चाहिए । अब इस दौर में आकर इसके बूरे परिणाम सामने आ रहे है । आभार
Comment by kanta roy on June 22, 2015 at 7:55am
आभार आपको आदरणीय कृष्णा मिश्रा जान गोरखपूरी जी कि आपने कथा के मर्म को भलिभाँति जाना है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 21, 2015 at 12:47pm

आदरणीया कांता जी , एक अच्छा संदेश दे रही है आपकी लघु कथा । हार्दिक बधाइयाँ आपको ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 21, 2015 at 10:45am

खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरते हैं उसके सुख के साधन जुटाते हैं और आगे चलकर बच्चे एक डायलाग ...की मुझे पैदा  ही क्यूँ किया था ..सब पर पानी फेर देता  हैं ..एक सबक भी इससे मिलता है की बच्चों को पालने की हैसियत है तो पैदा  करो वर्ना सच में मत करो  और आज कल की पीढ़ी प्लानिंग भी करने लगी है आपकी लघु कथा एक सन्देश एक सबक सब कुछ दे रही है ...बहुत खूब बहुत बहुत बधाई आपको कांता जी 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 21, 2015 at 9:31am

आज के समाज का परिवेश किस तरह का हो गया है उसका सटीक बानगी देती है आपकी कथा..व्यक्ति में संस्कार की जो कमी  आई है वह तो अपनी जगह है,पर अच्छे संस्कार में पले-बढ़े बच्चे भी बाहर के परिवेश में जाकर बहरी चमक-दमक का शिकार हो जाते है,जिसके लिए जिम्मेवार हम,हमारा समाज,हमारी शिक्षा प्रणाली है,जहाँ शिक्षा कम दिखावा ज्यादा है!!..प्राचीन गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा आरम्भ ही समानता के स्तर पर किया जाता था,कितने ही बड़े राजा का पुत्र क्यों न हो वह समान्य छात्र की भेषभूषा रहन-सहन में ही शिक्षा ग्रहण करता था,इसके पीछे कितनी बड़ी सोच थी कहने की आवश्यकता नही है!आज वैसी शिक्षा प्रणाली संभव तो नही पर,ऐसी समानता के स्तर को कम से कम शैक्षणिक संस्थानों में तो लागू करने की परम आवशकता है, बहुत बेहतरीन! आ० कांता ज़ी!हार्दिक बधाई!

Comment by kanta roy on June 19, 2015 at 5:19pm
बहुत बहुत आभार आपको सुशील सरना जी कथा पर अपना नजरिया पेश करने के लिए ।
Comment by Sushil Sarna on June 19, 2015 at 12:50pm

वर्तमान के हालातों को दर्शाती इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई। जाने कब अंकुर कब धरा का दर्द समझेगा। अगर धरा अपना सीना न चीरती तो अंकुर ने मिट्टी में ही दम तोड़ दिया होता। एक सार्थक लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया कांता रॉय जी। 

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