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2122 2122 2122 212

जिंदगी से जो चली अपनी ढ़िठाई दोस्तों

खाक में ही उम्र सारी यूँ  बिताई दोस्तों

अम्न की वंशी बजाई और गाये गीत भी

नफरतों की होलिका हमने जलाई दोस्तों

जब कभी दुश्वारियाँ आयी हमारी राह में

एक माँ की ही दुआ फिर काम आई दोस्तों

दोस्ती है एक नेमत टूटना अच्छा नहीं

साथ चलने में कहाँ कोई बुराई दोस्तों

हो भला सबका यहाँ मेरी दुआ है बस यही

ना करें कोई भी मज़हब की लड़ाई दोस्तों

 

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on June 13, 2015 at 6:57pm
मोहतरमा महिमा श्री जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

कुछ बिंदुओं की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-

(1) मतले में ईताए जली दोष आ गया है ।

(2)"अमन की वंशी बजाई और गाये गीत भी"

इस मिसरे में आपने लिखा "अमन" है लेकिन इसे "अम्न" के वज़्न पर बांधा है,और सही शब्द भी "अम्न" ही है ।

(3)"ना करें कोई भी महजब की लड़ाई दोस्तों"

इस मिसरे में शायद टंकण त्रुटि की वजह से "मज़हब" को आपने "महजब" लिख दिया है,देख लीजियेगा,बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by वीनस केसरी on June 13, 2015 at 4:40pm

वाह वा
बहुत खूब

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 13, 2015 at 3:47pm

सुन्दर एवं शिक्षा प्रद, बधाई, आदरणीय सुश्री महीमा जी।  

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