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"सुनो! आजकल न्यूज चैनल पर अदालती कार्यवाही की खबर सुनकर, यूँ लगता है कि क़ानून तेज और सबसे ऊपर है"

"हाँ! बिलकुल सही कह रही हो. यार!  रिमोर्ट कहाँ है..? थोड़ा वाल्यूम कम करना, वकील साहब का फोन आ रहा है "

"नमस्ते वकील साहब! कहाँ तक पहुंचा मामला..? अगली तारीख कब है..? "

"उन लोगों ने कहीं से कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किये है हम कमजोर पड़ सकते हैं. और अगली तारीख इसी माह है..?

"इसी माह्ह्ह.. वकील साहब! इतनी गर्मी पड़ रही है. मेरा परिवार के साथ सैर-सपाटे पर जाने का प्लान है. आप ऐसा कीजिये न. पिछली बार की तरह डॉक्टर से मिलकर... बाकि फिर साहब ,  आप तो न्याय के मन्दिर के पुजारी ठहरे.."

जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 9, 2015 at 12:59am

आपका आत्मीय आभार, भाई महर्षि जी

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 9, 2015 at 12:58am

लघुकथा पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभार,आदरणीय डा.गोपाल जी

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 9, 2015 at 12:57am

आदरणीय विनय जी. लघुकथा पर आपकी स्वीकारोक्ति ,सार्थकता का प्रमाण है आपका हार्दिक आभार

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 9, 2015 at 12:56am

आप से सहमत हूँ, आदरणीय डा.विजय जी. किन्तु न्याय है या अन्याय, इस परिणाम तक पहुँचने के लिए समय की आवश्यकता होती है और इसी बीच कई दाव खेल लिए जाते है. आपकी उपस्थिति से बहुत मनोबल मिलता है, सर. आपका ह्रदय से आभार

सादर!


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Comment by rajesh kumari on June 8, 2015 at 4:58pm

बढ़िया लघु कथा हुई किसी भी प्रणाली में सुधार हम लोगों के बिना नहीं हो सकता और हम लोग ही हैं जो सुधर नहीं सकते तो सुधार क्या ख़ाक होगा ,बहुत बहुत बधाई इस व्यंग पर भैया जितेन्द्र जी 

Comment by maharshi tripathi on June 8, 2015 at 2:57pm
adunik kanoon ki nyaya padhti ki pol kholiti sundar rachna pr apko aapke anuj ka pranam...
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 8, 2015 at 2:44pm

उजास का मंदिर और न्याय के देवता,  क्या बात है  !

Comment by विनय कुमार on June 8, 2015 at 10:15am

// न्याय के मंदिर के पुजारी ठहरे //, अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय जीतेन्द्र जी , बधाई .

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 8, 2015 at 9:54am

कानून का इस्तेमाल न्याय के लिए हो, न की अन्याय या बाधाएं बढ़ाने के लिए , यह देखना स्वयं क़ानून का काम है ,
विषय पर सार्थक प्रस्तुति. बधाई, प्रिय जीतेन्द्र जी। सादर।

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