For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

फ्लेक्सिबिलिटी....(लघुकथा)

“ओय! रितु.. अब बता कैसी लग रही हूँ...?” सोनिया ने पूरा ट्रडिशनल श्रृंगार करके, अपनी फ्रेंड से पूछा

“अरे! सोनिया. तू तो बिलकुल अबला लग रही है यार. भारतीय नारी..हा हा हा हा”

“हाँ! यार..अबला ही तो दिखना होगा. ऐसा मेरे वकील का कहना है, ताकि कल कोर्ट में जज सहानुभूति के तौर पर जल्दी से मेंटेनेंस बना देगा तो  मुझे अपने हसबेंड के घिसे-पिटे विचारों और बूढ़े सास-ससुर की खांसी-खुजली से छुटकारा मिल जाएगा.”

"उफ्फ!! बड़ी दूर की सोच होती है यार, वकीलों की.. अब चल ये पकड़ तेरे जींस-टॉप, चेंज कर  और जल्दी चल के कोल्ड कॉफ़ी पिलवा ”

                                          

 

  जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

Views: 971

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 28, 2015 at 10:23am

आदरणीय डा.आशुतोष जी. आज के इस स्वार्थ व् अधिक अपेक्षाओं से लबरेज जीवन में भावनाओं से खेलना आम बात सी हो गई है. आपकी उपस्थिति सदा मनोबल बढाती है आपका ह्रदय से आभारी हूँ

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 28, 2015 at 10:20am

आदरणीय विजय जी. रचना पर आपके आशीर्वाद हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 28, 2015 at 10:19am

आदरणीय सौरभ जी. आपके कहने //साहित्यकर्म केवल कोमल भावनाओं को शाब्दिक करने की कला नहीं है. यह मनुष्य और उसके समाज के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करने प्रयास भी है// से मैं पूर्ण सहमत हूँ. लघुकथा में वर्णित स्त्रियों की सोच स्वतंत्रता और अपने पारिवारिक कर्तव्यों से मुकरने के लिए ही एक घ्रणित सोच है ऐसी ही कई सोच पुरुष वर्ग भी अपने साथ लेकर चलते है. किन्तु जीवन में शार्टकट हमेशा ओंधे मुह गिरा देते है.

सादर!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 22, 2015 at 12:08pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी ..बहुत ही शसक्त लघु कथा पढने को मिली ..वाकई यही सच्चाई है ..भावनाओं के साथ खेला जाने वाला यह खेल अब ज्यादा ही प्रचलित हो गया है ...हर आदमी ने अपने जीवन में कहीं न कहीं इसे महसूस अवश्य किया होगा ,,इस उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 21, 2015 at 6:43pm

साहित्यकर्म केवल कोमल भावनाओं को शाब्दिक करने की कला नहीं है. यह मनुष्य और उसके समाज के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करने प्रयास भी है ऐसा साहित्यकर्म ही सार्थक साहित्यकर्म हुआ करता है. इसका साक्षात उदाहरण भाई जितेन्द्रजी की प्रस्तुत लघुकथा है.
अपना आज का समाज कितनी उन्नति कर रहा है या नैतिक रूप से किस ओछी दशा की ओर बढ़ रहा है यह तो अलग चर्चा का विषय है. लेकिन प्रस्तुत लघुकथा में व्यक्तित्व के जिस पहलू की चर्चा है वह सीधे हमारे-आपके बीच से उठाया गया पहलू है.
समझ में नहीं आता, लघुकथा में वर्णित स्त्रियों की सोच और ऐसे व्यवहार आजकी स्त्रियों की स्वतंत्रता का परिचायक है, या उनकी घृणित मानसिक उच्छृंखलता का बेहया प्रारूप सापेक्ष हुआ है. ढंग चाहे जो हो ऐसी स्त्रियाँ तब भी शातिरों के हाथों खेला करती थीं, आज भी शातिरों के हाथों खेला करती हैं

हार्दिक बधाई भाई जितेन्द्रजी. आपकी लेखिनी इसी तरह दिनानुदिन प्रखर हो.
शुभेच्छाएँ

Comment by vijay nikore on May 20, 2015 at 4:14am

आजकल की सच्चाई ! आपकी एक और लघु कथा का आनन्द आया।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 20, 2015 at 12:40am

आदरणीया डा.प्राची जी. लघुकथा पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया व् उपस्थिति हेतु आपका आभारी हूँ

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 20, 2015 at 12:38am

आदरणीय शुभ्रांशु जी. आप बिलकुल सही कह रहें है आज के रिश्तों के यही मायने रह गए है, लेना और देना. यह वास्तविक घटना ही है. जिस तरह एक अपराधी लचीलेपन का फायदा उठाता है वैसे ही आजकल 'परिवार परामर्श न्याया.  में देखने को मिल सकता है. आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया हेतु आपका आभारी हूँ

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 20, 2015 at 12:32am

आपकी संतुलित प्रतिक्रिया ,लघुकथा की सार्थकता का प्रमाण है आदरणीय डा.गोपाल जी. आपका ह्रदय से आभारी हूँ

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 19, 2015 at 10:25pm

ओह! रियल लाइफ में कितने आवरण ओढ़े /मुखौटों में अपने असली चेहरे को छुपाए कैसी कैसी चालें चलते हैं लोग... 

इस शातिरपने को ऐसे लोग फ्लेक्सिबिलिटी ही कहते होंगे शायद ... बहुत सुन्दर प्रस्तुति 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . नजर

नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई  लाचार । नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।। नजरों से छुपता…See More
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आपको प्रयास सार्थक लगा, इस हेतु हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. "
7 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का दिल से आभार आदरणीय । बहुत…"
7 hours ago
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"छोटी बह्र  में खूबसूरत ग़ज़ल हुई,  भाई 'मुसाफिर'  ! " दे गए अश्क सीलन…"
yesterday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"अच्छा दोहा  सप्तक रचा, आपने, सुशील सरना जी! लेकिन  पहले दोहे का पहला सम चरण संशोधन का…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। सुंदर, सार्थक और वर्मतमान राजनीनीतिक परिप्रेक्ष में समसामयिक रचना हुई…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . नजर

नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई  लाचार । नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।। नजरों से छुपता…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२/२१२/२१२/२१२ ****** घाव की बानगी  जब  पुरानी पड़ी याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१। * झूठ उसका न…See More
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"शुक्रिया आदरणीय। आपने जो टंकित किया है वह है शॉर्ट स्टोरी का दो पृथक शब्दों में हिंदी नाम लघु…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"आदरणीय उसमानी साहब जी, आपकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिला उसके लिए हार्दिक आभार। जो बात आपने कही कि…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"कौन है कसौटी पर? (लघुकथा): विकासशील देश का लोकतंत्र अपने संविधान को छाती से लगाये देश के कौने-कौने…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"सादर नमस्कार। हार्दिक स्वागत आदरणीय दयाराम मेठानी साहिब।  आज की महत्वपूर्ण विषय पर गोष्ठी का…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service