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इनकार कितना भी कर लें

दिल पर हाथ रख कर पूरी इमानदरी से सोचेंगे तो आप भी कहेंगे

हम भावनाओं की दुनिया में जीते हैं

और ये सच हो भी क्यों न , एकाध अपवाद छोड़कर

हम सब दो पवित्र भावनाओं के मिलन का ही तो परिणाम हैं

 

भावनायें गणितीय नहीं होतीं

कारण और परिणाम दोनों का गणितीय आकलन नामुमकिन है

हम सब ये जानते हैं , फिर भी

दूसरों के मामले में हम सदा गणितीय हल चाहते हैं ,

अक्सर रोते बैठते हैं , दो और दो चार न पा के

उत्तर कुछ भी निकल आता है , पाँच , सात या और कुछ

और सच तो ये है कि ,

यही हम सभी का सच है

लेकिन हमें दो और दो पाँच स्वीकार है 

अगर जोड़ हमारी भावनायें करें तो

विरोध , आश्चर्य और दुख दूसरों के उत्तर पाँच  आने पर है

 

इसी बदनीयती का ही तो परिणाम है ,कि  

स्वीकार की जा रहीं है

सार्वभौमिक सच की तरह  

और बिना जाँचे परखे  हाथ उठ रहें है स्वीकार में 

अगर बात अपने के मुँह से निकली हो  

 

आज बात किसने कही महत्वपूर्ण हो गई है ,

बातें क्या कही जा रहीं हैं गौण

 

छटपटा रहीं है छोटे मुँह से निकली बड़ी महत्वपूर्ण बातें

स्वीकृति के लिये

और किसी नामवर नें मुँह फाड़ा नहीं कि, बात सर पे उठा ली जाती हैं

उदाहरण बनाये जा रहे हैं

आज की अपनी ग़लती को सच साबित करने के लिये

अपनों से जुड़ाव कैसा भी हो

भावनात्मक , राजनीतिक , व्यापारिक या और कुछ

उनकी कही बातें आपके लिये सही भी है ,

और पत्थर की लकीर की तरह अमिट भी

फिर चाहे वो कितनी भी घातक क्यों न हों , परिणाम से  

 

मुझे तो दुख है , अफफोस है ,

होना तो आपको भी चाहिये ,

पर क्या पता ?

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 8:09pm
आदरणीया कांता जी ,रचना के अनुमोदन केलिये आपकाहृदय से आभारी हूँ ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 6:04pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, यथार्थ को ब्यान करती एक और रचना , यही तो हुआ और हो रहा है उस परिवेश में जहां हम रह रहे हैं , हम गलत से गलत बात, विचार को सिर्फ इसलिए ओढ़े रहते हैं कि उसी को ओढ़े रहने से हम वस्त्रवालों में शुमार होते हैं , अन्यथा पता नहीं क्या मान कर बहिष्कृत दिए जाएँ।
बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति के लिए , सादर।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 3:36pm

आज बात किसने कही महत्वपूर्ण हो गई है ,

बातें क्या कही जा रहीं हैं गौण

 

छटपटा रहीं है छोटे मुँह से निकली बड़ी महत्वपूर्ण बातें

स्वीकृति के लिये

और किसी नामवर नें मुँह फाड़ा नहीं कि, बात सर पे उठा ली जाती हैं

उदाहरण बनाये जा रहे हैं....आदरणीय गिरिराज भाईसाब इस चितन से ओत प्रोत शसक्त रचना के लिए आपको तहे दिल बधाई सादर 

Comment by Samar kabeer on May 12, 2015 at 2:20pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,आपकी अच्छी कविताओं में एक और इज़ाफ़ा हुवा ,सुन्दर भावों से सजी इस कविता के लिये दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं।
Comment by kanta roy on May 12, 2015 at 11:58am
बात छटपटाती है ....बात कुलबुलाती है ....बात बहुत असर करती है । मन मे दबी हुई बात बाहर आ भी जाये मुश्किल से तो स्वीकारोक्ति चाहती है वो । भावनाओं में हम सदा जीते है हमारी अपनी भावनायें ही प्यारी होती है । उसके पोषण के लिए जाने कितने दिलों को रौंद कर निकल जाते है । फिर भी यह सच है कि हम सभी भावुक होते है सिर्फ अपने बातों की स्वीकारोक्ति चाहते है । बातों के घातक परिणामों के बारे में किसको फुर्सत है जो सोचे । बात बडे ही पते की कह गये बातों बातों में आप आदरणीय गिरीराज भंडारी जी

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