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ग़ज़ल - लफ्ज़ सजाना पड़ता है.... (मिथिलेश वामनकर)

22—22—22—22—22—2

 

पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है

आँसू पीकर गीत बनाना पड़ता है  

 

मंहगाई में  झूठा रौब जताने को

चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है

 

नीला-नीला पानी कैसे लाल हुआ

बच्चों से हर राज़ छुपाना पड़ता है

 

दुनिया से जब यार मुकाबिल होता हूँ,

हर तेवर, हर रंग दिखाना पड़ता है

 

पत्थर जैसा जान हमे वो पेश आये

जिन्दा है अहसास कराना पड़ता है

 

जैसा दिखता है, वैसा होता है कब

दोनों में बस फर्क लगाना पड़ता है

 

रूह गुलामी से देखो कितनी लिपटी

अपना खुद को शोर सुनाना पड़ता है

 

आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी

हर दिन अपना कौर  खिलाना पड़ता है

 

उनके दुःख में झूठें आँसू लाने को

झूठा हर अहसास जगाना पड़ता है

 

दुनिया का सच जाहिर करने ग़ालिब को

खुद को ही बदनाम जताना पड़ता है

 

 

------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
----------------------------------------------------

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 11, 2015 at 4:19am

आदरणीय राजकुमार आहूजा जी हार्दिक आभार 

Comment by rajkumarahuja on April 10, 2015 at 11:06am

एक अच्छी और खूबसूरत ग़ज़ल के लिए साधुवाद माननीय मिथिलेश वामनकर जी  !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 11:38pm

आदरणीय शिज्जु भाई इस बार मामला दूसरा हो गया ... धीरज इतना रखा कि ठीक ठाक लिखी ग़ज़ल में संशोधन करते करते त्रुटियाँ पैदा कर ली... मिसरे के बीच के लफ्ज़ बदलता गया और स्त्रीलिंग -पुल्लिंग से ध्यान भटक गया ... मिसरे बह्र में फिट हो गए ... फिर गलतियाँ ही गलतियाँ .... रोटी खिलाना पड़ता है, बात बताना पड़ता है ... खैर गुनीजनों के मार्गदर्शन ने सही दिशा दिखा दी.  मेरी पिछली ग़ज़ल पर आदरणीय दिनेश भाई जी ने आज कमेन्ट किया है कि -\\आप भी उस्ताद बन गए हो।\\ --- इधर मैं इस ग़ज़ल की त्रुटियों पर शरम से पानी पानी हो रहा हूँ अगर अवचेतन मन में भी धोके से उस्तादी घर कर रही हो तो वो भी चुपचाप निकल गई है. खैर 

आपकी सकारात्मक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. अभ्यास जारी है उम्मीद है जीवन में कम अज कम एक शेर तो अच्छा कह जाऊंगा. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 9, 2015 at 7:22pm

मिथिलेश जी अधीरता स्वाभाविक है वैसे ग़ज़ल असरदार है इस्लाह के बाद और भी बेहतर हो जायेगी इस मंच की यही खासियत है यदि कोई कसर रह जाये तो बाद में भी सुधारा जा सकता है। आदरणीय समर कबीर जी का धन्यवाद ऐसे हम सभी का मार्गदर्शन करते रहें। मिथिलेश जी को बधाई इस रचना के लिये।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 9, 2015 at 7:08pm

आदारणीय मिथिलेश भाई , गिनती  में गलतियों  संख्या  अधिक होने के कारण  मुझे पोस्ट करने में जल्दबाज़ी का अंदाज़ा लगाना पड़ा   था । 10 दिन गज़ल रुकी थी पढ़ के अच्छा लगा , बहुत परिर्वतन करने से कभी कभी कोई बात छूट जाती है , ऐसा होना भी स्वाभाविक है  , अब और ध्यान दीजियेगा । गलतियाँ सब से होतीं है , बस लगे रहिये , धीरे धीरे सब ठीक होते जायेगा ॥ सादर ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:05pm
आदरणीय नज़ील जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:04pm
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:03pm
आदरणीय श्याम नरेन जी हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 5:02pm
आदरणीय कृष्ण भाई जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 9, 2015 at 3:53pm

आदरणीय गिरिराज सर,

आदरणीय समर कबीर जी,

 

आज आप दोनों गुणीजनों से एक साथ निवेदन कर रहा हूँ. सर्वप्रथम तो ग़ज़ल पर मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार. ये ग़ज़ल मैंने जल्दबाजी में पोस्ट नहीं की है बल्कि त्रुटिपूर्ण संशोधन किये है जिससे कहन की तार्किकता के साथ न्याय नहीं कर पाया. 10 से 15 दिन पहले तीन गज़लें लिखी थी. ये ग़ज़ल भी उन्ही में से एक है. ये ग़ज़ल मैंने लगभग 10 दिन पहले लिखी थी और इसमें कई बार संशोधन किये है, लेकिन संशोधन करते हुए शब्दों को बदलते गया किन्तु मिसरे में पैदा हो रहे लिंग दोष और तार्किकता पर ध्यान नहीं गया. कल सोचा कि ग़ज़ल पर काफ़ी मेहनत हो गई है ये सोचकर ग़ज़ल पोस्ट कर दी. आपने जिस अशआर में त्रुटी बताई है निवेदन है कि-

 

‘आधी रोटी रोज’ के स्थान पर ‘हर दिन अपना कौर’ लिखा था फिर सोचा कि रोटी का उल्लेख आवश्यक है, बात में वज्न आएगा और ‘आधी रोटी रोज’ लिखकर मिसरे को दुरुस्त मान लिया.

इसी प्रकार “बच्चों से हर वक़्त छुपाना पड़ता है” इसमें पहले वक़्त लिखा था फिर  ‘वक़्त’ से बदलकर ‘खेल’ किया फिर ‘बात’ कर दिया.

खुद को दिल का शोर सुनाना पड़ता है / खुद को ही आवाज सुनाना पड़ता है / अपनी खुद को चीख सुनाना पड़ता है............. इस मिसरे में भी बदलाव के क्रम गंभीर त्रुटी कर बैठा.

बाजारी जज़्बात जगाना पड़ता है .... इस मिसरे में भी बदलाव का क्रम इस तरह से था- अपना हर अहसास/ झूठा फिर अहसास/ बाजारी अहसास / बाजारी जज़्बात, चूंकि अहसास का प्रयोग एक और मिसरे में कर चुका था इसलिए अहसास को बदलकर सममात्रिक शब्द जज़्बात ले लिया.

 

घरवालों पर अपना रौब जताने को

(इसे बदलकर यूं किया था)- घर में अपना झूठा रौब जताने को

चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है

यहाँ कहना यही था कि इस महगाई के दौर में तनख्वाह चिल्लर लगती है लेकिन तनख्वाह लाने और उसका अहसास कराके अपना रौब दिखाना पड़ता है .... लेकिन शायद जितना और जैसा सोच रहा था उतना शब्दों से अभिव्यक्त नहीं हो पाया.

 

आप लोगो के मार्गदर्शन अनुसार इस ग़ज़ल के मिसरे इस तरह निवेदित है-

 

पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है

आँसू पीकर गीत बनाना पड़ता है

 

नीला नीला पानी कैसे लाल हुआ

बच्चों से हर राज़ छुपाना पड़ता है

 

आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी

हर दिन अपना कौर खिलाना पड़ता है

 

रूह गुलामी से देखो कितनी लिपटी

अपना खुद को शोर सुनाना पड़ता है

 

उनके दुःख में झूठे आँसू लाने को

झूठा हर अहसास जगाना पड़ता है

 

आपने ग़ज़ल को समय दिया और अमूल्य मार्गदर्शन के प्रदान किया उसके लिए हृदय से आभारी हूँ. भविष्य में सावधानी रखूंगा और त्रुटियाँ कम करने का सदैव प्रयास करता रहूँगा. सादर  

कृपया ध्यान दे...

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