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ग़ज़ल -- प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही -- ( गिरिराज भंडारी )

२११२२        २११२२         २११२      

प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही

*****************************************

प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही

ख्वाब तो हो, सच्चा न सही  मुबहम ही सही

 

लम्स तेरा जिसमें न मिले वो चीज़ ग़लत

आब हो या महताब हो या ज़म ज़म ही सही 

 

मेरे सहन में आज उजाला , कुछ तो करो    

धूप अगर हलकी है उजाला कम ही सही

 

कुछ तो इधर अब फूल खिले सह्राओं में भी 

काँटों लदी हो डाल खिले कम कम ही सही

 

तेज़ बहुत रफ़्तार लगी खुशियों की उधर

कुछ तो बहे अपनी भी गली , मद्धम ही सही

 

है तो फिरी दुनिया की नज़र चल मान लिया 

मेरी वफ़ा कायम है अगर कायम ही सही

 

ता कि ये हथकड़ियाँ भी शिकायत कर न सके 

जब न कलाई कोई जँची, तो हम ही सही  

****************************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:17pm

आदरणीय महर्षि भाई , गज़ल की सराहना और कुछ अश आर को पसंद करने के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:16pm

आदरणीय विजय भाई , उत्साह  वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:15pm

आदरणीय श्याम भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत आभार ॥

कटःइन शब्दों का अर्थ नेचे दे रहा हूँ , और आगे से खयाल भी रखूंगा --

मुबहम-- धुँधला , अस्पष्ट 

लम्स --  स्पर्ष , छुवन

सह्राओं -- मरुस्थ्लों


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:10pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ॥ 

आपने सही कहा है , शे र में तकाबुले रदीफ दोष है , लेकिन आदरनीय वीनस भाई जी ने ज़बानी एक बात कही थी कि अगर दोष हटाने की कोशिश में बात कमज़ोर पड़ रही हो तो छूट ली जा सकती है ! बह्र भी मै कटःइन चुन लिया था और रदीफ भी , इस्लिये दोष सहित शे र को स्वीकार कर लिया हूँ । ये सच है कि दोष है ज़रूर ॥

Comment by Sushil Sarna on April 2, 2015 at 8:54pm

प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही
ख्वाब तो हो, सच्चा न सही मुबहम ही सही
वाह आदरणीय गिरिराज भंडारी जी खूबसूरत आगाज़ की इस खूबसूरत ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं।

Comment by maharshi tripathi on April 2, 2015 at 8:11pm

कुछ तो इधर अब फूल खिले सह्राओं में भी 

काँटों लदी हो डाल खिले कम कम ही सही

 

तेज़ बहुत रफ़्तार लगी खुशियों की उधर

कुछ तो बहे अपनी भी गली , मद्धम ही सही

 

है तो फिरी दुनिया की नज़र चल मान लिया 

मेरी वफ़ा कायम है अगर कायम ही सही

 

ता कि ये हथकड़ियाँ भी शिकायत कर न सके 

जब न कलाई कोई जँची, तो हम ही सही  ,,,,,,,,बेहद उम्दा ,,,शानदार ,,आपको बधाई आ. गिरिराज भंडारी सर |

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 2, 2015 at 7:52pm
ता कि ये हथकड़ियाँ भी शिकायत कर न सके
जब न कलाई कोई जँची, तो हम ही सही
बहुत खूब, बधाई , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , सादर।
Comment by Shyam Mathpal on April 2, 2015 at 7:15pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,

बहुत ही उम्दा व दिल खुश करने वाली गजल . कुछ उर्दू के लब्ज के मायने बताने की कृपा करें . हार्दिक बधाई.

मुबहम,सह्राओं ,लम्स

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2015 at 5:45pm

आ० अनुज

बड़ा  गजब का काफिया लिया .पर निबाहा भी खूब .  वाह क्या गजल हुयी है . चौथे शेर में उला  और सानी क्रमशः भी और सही है , क्या यह सही है ,मुझे बताया गयाहै कि ऐसेमे  रदीफैन दोष होता है  . शंका मिटाएं मित्र .सादर .

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