बह्र : २१२२ १२१२ २२
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फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं
ये ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं
टूट जाएँगे मठ पुराने सब
देश में नौजवान ज़्यादा हैं
हर महल की यही कहानी है
द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं
आ गई राजनीति जंगल में
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं
हाल क्या है वतन का मत पूछो
गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं
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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी एवं भुवन जी, मैं मतले को बदलने के लिए प्रयासरत हूँ। अश’आर पसंद करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
इस ’आर्ष रचना’ के लिए हार्दिक बधाई,आदरणीय धर्मेन्द्र भाई.
काफ़िया ’सान’ ही नहीं गड़बड़ाया है, इता का दोष भी हावी है.
अलबत्ता शेर के कथ्य कमाल के हुए हैं. लेकिन आप जैसे सिद्धहस्त और गहन ग़ज़लकार के लिए अपवादों का उदाहरण दिया जाना थोड़ा अटपटा लगा.
फिर भी, हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई, हम लोग तो एक दुसरे से ही सीखते हैं न ! आप तो जानते ही हैं ग़ज़ल में हाथ मेरा तंग है, मैं तो जानने की उत्सुकता वश पूछ लिया था, आप यदि जानबूझकर काफिया उस तरह निर्धारित किये हैं और छूट की बात कर रहे हैं तो अवश्य ही इसप्रकार की छूट जायज होगी. लेकिन पुनः आप दुविधा बढ़ा दिए .....
//आदरणीय योगराज जी, एवं बागी जी आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है। काफ़िया के नियमों के अनुसार किसान और मसान हमकाफ़िया नहीं हो सकते।//
यदि काफिया नियमानुसार किसान और मसान हम्काफिया नहीं हो सकते तो फिर छूट की बात और उदाहरण बेमानी है ना !
// मज़बूर होकर यदा कदा ली गई इस छूट//
ऐसी क्या मज़बूरी साहब ! ग़ज़ल कही मज़बूरी में कही जाती है !
//काफ़िया तंग है//
भाई यहाँ पर तंग काफिया तो नहीं है, मतला में एक काफिया को बदल कर आसानी से "आन" पर काफिया बैठा सकते हैं ...आप की ग़ज़ल से ही मैं दो मिसरों का उलट फेर विनम्रता से करना चाहूँगा .....
फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं
आ गई राजनीति जंगल में
(ये) कम ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं
सादर !
शुक्रिया somesh kumar जी
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