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राह : कुकुभ छन्द: हरि प्रकाश दुबे

डरना हो तो बुरे कर्म से , डरना सीखो मतवाले !

उनको चैन कभी ना मिलता , जिनके होते मन काले !!

तोल सको तो पहले तोलो, बिन तोले कुछ मत बोलो !

मौन रहो जितना संभव हो , कम बोलो मीठा बोलो !!

 

खाना हो तो गम को खाओ, आंसू पीकर खुश होना  !

गम सहने की चीज है बंधू , अपना गम न कहीं रोना !!

जला सको तो अहं जला दो , वरना अहं जला देगा !

हिरण्यकश्यप रावण के सम, तुमको भी मरवा देगा !!

 

दिखा सको तो राह दिखाओ , उसको जो पथ में भूला !

भगत सिंह ने हमें जगाया  , खुद था फांसी पर  झूला !!

मरना हो तो मरो देशहित,  मरने से मत  घबराना  !

रोज रोज तिल तिल मरने से ,अच्छा इक दिन मर जाना  !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

Views: 818

Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on March 3, 2015 at 11:04am
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 3, 2015 at 10:33am

आदरणीय हरिप्रकाशजी, आपकी मेहनत रंग ला रही है. कथ्य और संप्रेषणीयता के हिसाब से बहुत ही सार्थक प्रस्तुति हुई है. शिल्प के लिहाज से जो कुछ मैं कहना चाहता था, आदरणीय मिथिलेश भाईजी ने स्पष्ट कर दिया है. कुकुभ छन्द का पदान्त कम-से-कम यगण (यमाता, ।ऽऽ, १२२, लघु-गुरु-गुरु) से अवश्य हो.
प्रस्तुति पर हार्दिक शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 7:06am

वाह वाह वाह आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी गज़ब कर दिया । कुकुभ छंद की अदभुत छटा बिखेरी है। सभी पद बहुत भावपूर्ण और सुन्दर बने है। बस दूसरे और तीसरें पद में तुकांत/पदांत  लघु गुरु हो गया है जिसे गुरु गुरु करना होगा। 

सुखी रहो, नहीं कहों, भूल गया, झूल गया, मरना और डरना 

इसे आदरणीय सौरभ सर ने कुछ ऐसे समझाया है- " दो लघु द्विकल अवश्य बन सकते हैं लेकिन गुरु मात्रिकता का स्थानापन्न नहीं हो सकते. कुकुभ छन्द में पदान्त दो गुरुओं से होना तय है. न कि दो लघुओं के द्विकल से जो समुच्चय में दीर्घ मात्रिकता आभास देते हैं. "

इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई । छंद को साधने के लिए विशेष बधाई...

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 3, 2015 at 3:01am

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी प्रभावी पंक्तियाँ .....बधाई 

जला सको तो अहं जला दो , वरना अहं जला देगा !

हिरण्यकश्यप रावण के सम, तुमको भी मरवा देगा !!

Comment by somesh kumar on March 2, 2015 at 11:43pm

मरना हो तो मरो देशहित,  मरने से काहे डरना !

रोज रोज तिल तिल मरने से ,अच्छा है एक दिन मरना !!

 सुंदर भावों से परिपूर्ण रचना पर बधाई |

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 2, 2015 at 11:24pm
बहुत ही उम्दा छंद बहुत बहुत बड़ाई!!आदरणीय!!

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