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सीप में बंद मोती .....

सीप में बंद मोती .....

दूर उस क्षितिज पर
रोज इक सुबह होती है
रोज सागर की सूरज से
जीवन के आदि और अंत की बात होती है
जब थक जाता है सूरज
तो सागर के सीने पर
अपना सर रख देता है
और रख देता है
अपने दिन भर के
सफ़र की थकान को
अपने हर सांसारिक
अरमान को
बिखेर देता है
अपनी सुनहरी किरणों की
अद्वितीय छटा को
सागर की शांत लहरों पर
फिर अपने अस्तित्व को
धीरे-धीरे निशा में बदलती
सुरमई सांझ के आलिंगन में
विलीन कर क्षितिज में ओझल हो जाता है
जीवन शांत हो जाता है
क्या उदय सत्य है
या अस्त सत्य है
ये आभास है
या सत्य का विरोधाभास है
न ये तृप्ति है न ये प्यास है
क्या है आखिर
इक अंकुर में जीवन प्रभात है
तो इक सांझ में निराशा का वास है
सागर के गर्भ में जीवित
असंख्य सीपियों की तरह
जीवन के गर्भ में भी असंख्य प्रश्न
अपने उत्तर के लिए भटकते हैं
और उत्तर बस
सीप में बंद मोती की तरह
उस नूर की मुट्ठी में बंद हैं
जिसके हम सब बन्दे कहलाते हैं
जिसे हम सब
ईश्वर,अल्लाह,ईसा मसीह,वाहे गुरु कहते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on February 27, 2015 at 1:06pm

आदरणीय मोहन सेठी जी रचना में निहित भावों को मान देने के लिया आपका  हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on February 27, 2015 at 1:04pm

आदरणीय हरी प्रकाश दूबे जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on February 27, 2015 at 1:03pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आत्मीय प्रशंसात्मक एवं ऊर्जावान प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on February 27, 2015 at 1:02pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी रचना के भावों पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया ने रचना को एक ऊंचाई प्रदान की है , आपके इस स्नेह का तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 27, 2015 at 4:43am

आदरणीय सुशील सरना जी बहुत गहरे भाव लिये सुंदर रचना :

जीवन के गर्भ में भी असंख्य प्रश्न 
अपने उत्तर के लिए भटकते हैं 
और उत्तर बस 
सीप में बंद मोती की तरह 
उस नूर की मुट्ठी में बंद हैं 

हार्दिक बधाई .....

Comment by Hari Prakash Dubey on February 26, 2015 at 8:59pm

आदरणीय सुशील सरना सर ,बहुत ही सुन्दर दर्शन से पूर्ण  रचना है ,हार्दिक बधाई आपको !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 26, 2015 at 8:53pm

आदरणीय सुशील सरना सर बहुत ही सुन्दर रचना की प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई 

इन पंक्तियों के लिए विशेष बधाई 

-

सागर के गर्भ में जीवित 
असंख्य सीपियों की तरह 
जीवन के गर्भ में भी असंख्य प्रश्न 
अपने उत्तर के लिए भटकते हैं 
और उत्तर बस 
सीप में बंद मोती की तरह 
उस नूर की मुट्ठी में बंद हैं 
जिसके हम सब बन्दे कहलाते हैं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 26, 2015 at 7:33pm

जीवन के गर्भ में भी असंख्य प्रश्न 
अपने उत्तर के लिए भटकते हैं 
और उत्तर बस 
सीप में बंद मोती की तरह 
उस नूर की मुट्ठी में बंद हैं 
जिसके हम सब बन्दे कहलाते हैं 
जिसे हम सब 
ईश्वर,अल्लाह,ईसा मसीह,वाहे गुरु कहते हैं----बहुत खूब सागर ,सूरज का बिम्ब लेकर जीवन के उदय अंत जैसे आध्यात्मिक प्रश्न को मुखरित किया है रचना में बहुत अच्छी लिखी 

हार्दिक बधाई आ० सुशील सरना जी 

Comment by Sushil Sarna on February 26, 2015 at 7:31pm

आदरणीय महृषी त्रिपाठी  जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया।  

Comment by Sushil Sarna on February 26, 2015 at 7:28pm

आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी आपके द्वारा  रचना की चयनित पंक्तियों पर आपके द्वारा प्रदत् ऊर्जावान प्रशंसा से मेरी लेखनी से प्रस्फुटित भावों को असीम बल मिला है ,आपका हार्दिक आभार। 

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