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गज़ल ज़िन्दगी जाती सरकती..... सीमा हरि शर्मा

जिंदगी जाती सरकती

ज़िन्दगी जाती सरकती।
लाख पकड़ो कब ठहरती।

जो भी पल समझा मुकम्मल।
फिर नई इक दौड़ चलती।

सूर्य समझा जो सहर का।
शाम थी लाली फिसलती।

थक चुका है जिस्म चलते।
चाह से क्या जां निकलती।

धुन्द जब है कुछ पलों की।
रश्मि आखिर क्यों अटकती।

झूमती दिखती जो डाली।
आँधियों से है सिहरती।

रात से लड़ता है दीपक।
आस सुबहा की मचलती।
सीमा हरि शर्मा 24.12.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by vandana on December 25, 2014 at 5:18am

जो भी पल समझा मुकम्मल।
फिर नई इक दौड़ चलती।

सूर्य समझा जो सहर का।
शाम थी लाली फिसलती।

बहुत खूब आदरणीया सीमा जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 6:27pm
आदरणीया सीमा हरि जी बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by gumnaam pithoragarhi on December 24, 2014 at 6:10pm

बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 5:51pm

आदरणीया सीमा हरि जी , क्षमा कीजियेगा , गलती मुझसे ही हुई है , आपकी गज़ल सही है ,

पुनः क्षमा मांगते हुये गज़ल के लिये आपको बहुत बहुत बधाई प्रेषित कर रहा हूँ , स्वीकार करें ।

Comment by seemahari sharma on December 24, 2014 at 5:29pm
आदरणीय Khursheed khariadi जी बहुत आभार गजल पसंद कर उत्साह बढ़ाने के लिए।
Comment by seemahari sharma on December 24, 2014 at 4:38pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत बहुत आभार आपने रचना को इतना समय दिया।आदरणीय मैंने इस गजल में 2122 2122 की बहर ली है।

2 1 2 2 2 1 2 2
ज़िन्दगी जा, ती सरकती।
लाख पकड़ो, कब ठहरती।

जो भी पल सम, झा मुकम्मल।
फिर नई इक , दौड़ चलती।

सूर्य समझा , जो सहर का।
शाम थी ला , ली फिसलती।

थक चुका है, जिस्म चलते।
चाह से क्या, जां निकलती।

धुन्द जब है, कुछ पलों की।
रश्मि आखिर, क्यों अटकती।

झूमती दिख, ती जो डाली।
आँधियों से, है सिहरती।

रात से लड़, ता है दीपक।
आस सुबहा, की मचलती।

म चल ती, सि हर ती , अ टक टी, मु कम मल
122 122 122 122
लिया है। यदि आपका आशय
मच ल ती , सिह र ती , फिस ल ती आदि में
2 1 2 212 212 होना चाहिए तो इस बारे में मुझे अधिक जानकारी नही है कृपया मार्ग दर्शन करें। सादर।
Comment by khursheed khairadi on December 24, 2014 at 2:55pm

रात से लड़ता है दीपक।
आस सुबहा की मचलती

आदरणीया सीमा जी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है ,सादर अभिनन्दन |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 1:14pm

आदरणीया सीमा हरि जी , गज़ल बहुत खूबसूरत हुई  है , हार्दिक बधाइयाँ ।  लेकिन शे र के मिसरे एक ही बहर मे नही लग रहे हैं । कहीं 2122   2212  मात्रा क्रम है तो कहीं  2122   2122  कहीं और ही कुछ । किसी एक बहर में मिसरे सध जायें तो बढिया गज़ल  होगी ।

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