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मेरे हाथों में तारे देख कर वो क्यूँ जला है

१२२२   १२२२    १२२२   १२२

मेरे हाथों में तारे देख कर वो क्यूँ जला है

मेरे मालिक तेरा इंसान जाने क्या बला है

 

लड़ा ताउम्र दरिया हौसलों के साथ अपने

लगाया था गले जिनको उन्हें ही क्यूँ खला है

 

घुसे थे झाड़ियों में तो बहुत ज्यादा संभलकर

थे हम भी बेखबर उस नाग से जो घर पला है   

 

बड़ा मुश्किल है फहराना ये परचम शोहरत का

यकीनन  कारवा पहले या आखिर में चला है

 

नहीं शिकवा गिला हमको कभी भी आपसे था

कभी खिलता ये  गुल भी नागफनियों में भला है

 

हकीकत की ही तो मैं सच बयानी कर रहा हूँ  

सफ़र में जो चला है वो अकेला ही चला है

 

जिगर के गहरे में ये अजनबी सा डर है मेरे

भला इंसान क्यूँ लगता नहीं मुझको भला है

 

  

 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 11:26am

दरणीय  आशुतोष भाई , जीवन के कटु सत्य को बयां करती बहुत बेहतरीन गजल कही आपने हार्दिक बधाई l

घुसे थे झाड़ियों में तो बहुत ज्यादा संभलकर

थे हम भी बेखबर उस नाग से जो घर पला है

इस श'र के लिए अतिरिक्त बधाई स्वीकारें l

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2014 at 7:43pm

आशुतोष जी

बहुत अच्छी  गजल कही आपने i  मतले पर ही मजा आ गया i  वाह--- i  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 11, 2014 at 12:21pm

बहुत खूबसूरत अशआर कहे हैं आ० डॉ० आशुतोष मिश्रा जी 

अपने कहन से सभी नें बहुत प्रभावित किया 

हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 11, 2014 at 11:52am

घुसे थे झाड़ियों में तो बहुत ज्यादा संभलकर

थे हम भी बेखबर उस नाग से जो घर पला है 

हकीकत की ही तो मैं सच बयानी कर रहा हूँ  

सफ़र में जो चला है वो अकेला ही चला है

जीवन के कटु सत्य को बयां करती बहुत बेहतरीन गजल कही आपने, इन शेरो पर विशेष बधाई आपको आदरणीय डा.आशुतोष जी

 

Comment by Abhinav Arun on June 11, 2014 at 11:05am
घुसे थे झाड़ियों में तो बहुत ज्यादा संभलकर

थे हम भी बेखबर उस नाग से जो घर पला है ...वाह क्या कहने डॉ आशुतोष जी बधाई इस ग़ज़ल के लिए !!

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