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मन कार्यालय हुआ : पाँच दशा // --सौरभ

1)
मन उदास है
पता नहीं, क्यों..

झूठे !
पता नहींऽऽ, क्योंऽऽऽ..?

2)
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये
टेबुल पर पड़ा
कुछ नहीं सोचता.. न सोचना चाहता है
प्रयुक्त होता हुआ बस बना रहता है

निर्विकार, निर्लिप्त
बिना उदास हुए

3)
हाँ, चैट हुई
पहले से उलझे कई विन्दु क्या सुलझते
कई और प्रश्न बोझ गयी.

अपलोड कर लेने के बाद ऑफ़िशियल मेल / जरूरी रिपोर्ट
आँखें बन्द कर
पीछे टेक ले
थोड़ी देर निष्क्रिय हो जाना
कोई उपाय तो नहीं,

और, कोई उपाय भी तो नहीं..
अभी !

4)
उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को

और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए

5)
वो साथ का है
पता नहीं !
वो ’स्सा.. ’   थका है
हाँ पता है.. !!


************
--सौरभ
************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by coontee mukerji on February 4, 2014 at 3:22am

उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं .......
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं ......कितनी कष्टदायक होती है.
वो साथ का है
पता नहीं !
वो ’स्सा.. ’  थका है
हाँ पता है.. !!.......सौरभ जी ये क्या लिखा है आपने......?.....मेरी समझ में नहीं आया. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 3, 2014 at 7:07pm

आदरणीय सौरभ भाई , कार्यालयीन रवैया का हूबहू वर्णन किया है आपने , आपको हार्दिक बधाई ॥

उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को

और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए

मध्यम वर्ग का हाल बयाँ करती आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी ॥ आपको अनेक बधाई ॥

कृपया ध्यान दे...

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