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ग़ज़ल (ज़िंदगी के यज्ञ में खुद को हवन करना पड़ा)

ज़िंदगी के यज्ञ में खुद को हवन करना पड़ा 
आंसुओं से ज़िंदगीभर आचमन करना पड़ा....


मंज़िलों से दूरियाँ जब ,कम नहीं होती दिखीं 
क्या कमी थी कोशिशों में,आंकलन करना पड़ा .....


ऐसे ही पायी नहीं थी देश ने स्वतन्त्रता 
इस को पाने के लिए क्या क्या जतन करना पड़ा ...


जाने मुंसिफ़ की भला थी कौन सी मजबूरियां 
फैसला हक़ में मेरे जो दफ़अतन करना पड़ा.... 


किस तरह कृतत्व से व्यक्तित्व है ,आखिर जुड़ा 
इस विषय पर देर तक चिंतन गहन करना पड़ा ....


मोह,माया,वासना की कामना कोई न थी 
इश्क़ हमको आपसे बस आदतन करना पड़ा ...


काव्य रस का पान कर ,आनंद लेने के लिए 
मन लगा कर पाठकों को अध्ययन करना पड़ा ...

मौलिक व अप्रकाशित .... 

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Comment

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Comment by Anurag Singh "rishi" on January 14, 2014 at 12:23am

वाह उम्दा रचना हेतु बधाई
सादर

Comment by coontee mukerji on January 12, 2014 at 9:58pm

मोह,माया,वासना की कामना कोई न थी 
इश्क़ हमको आपसे बस आदतन करना पड़ा.......बहुत खूब.

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 12, 2014 at 7:21pm

आदरणीय अजय भाई,

सुंदर गज़ल , हिंदी शब्दों का सुंदर प्रयोग़ , हार्दिक बधाई । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2014 at 6:19pm

आदरणीय अजय भाई , लाजवाब हिन्दी गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ सभी शेर सुन्दर हुये हैं  ॥

किस तरह कृतत्व से व्यक्तित्व है ,आखिर जुड़ा - ----  इस मिसरे की तकतीअ फिर से करके देख लीजियेगा ,शायद गलत हो ॥

 

Comment by Meena Pathak on January 12, 2014 at 3:02pm

काव्य रस का पान कर ,आनंद लेने के लिए 
मन लगा कर पाठकों को अध्ययन करना पड़ा ...

 ..............वाह वाह ... क्या बात कही आप ने ,, बहुत खूब 

Comment by Abhinav Arun on January 12, 2014 at 8:01am

काव्य रस का पान कर ,आनंद लेने के लिए
 मन लगा कर पाठकों को अध्ययन करना पड़ा ......वाह वाह शानदार जिंदाबाद अजय जी बधाई !! क्या खूब ग़ज़ल हुई है !

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