For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
आवारा
भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.
जिंदगी सिसक रही है जहाँ
दम घोटूँ
एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है
बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.
सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.
(2)
मैं क्या करूँ
सूरज निकलता है
भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से
मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ
कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो
कभी किसी सन्नारी के गजरों में.
(3)
पारदर्शी मेरा शरीर
घूमता हूँ हर जगह
विडम्बना मेरी, देखता हूँ सब कुछ
दृश्य-अदृश्य
आश्चर्य! जो देवता रात भर
रौंदता है फूलों को
दिन में धूप गुग्गल के धुएँ से
पवित्र करता सारा वातावरण
धन्य करता है जग को
उठाए हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में.
(4)
मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ
स्वप्नलोक की सैर कराता
लेता हूँ सबको अपने बाहुपाश में.
(5)
संध्या मुझे जन्म देती है,
चल देती है मेरा बाल रूप सँवार के
तारों के प्रकाश में, अमावस में
पूर्ण चंद्रमा की रोशनी में
मैं पूर्ण यौवन पाता हूँ.
(6)
जन्म लेता है मेरे उर से नित्य एक दिवस
प्रकाशवान, पलता हुआ अरुणिमा की गोद में-
हाँ, मैं समर्थ हूँ, सच्चा हूँ, रात हूँ.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)

Views: 987

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by राजेश 'मृदु' on December 11, 2013 at 4:04pm

जन्म लेता है मेरे उर से नित्य एक दिवस
प्रकाशवान, पलता हुआ अरुणिमा की गोद में-
हाँ, मैं समर्थ हूँ, सच्चा हूँ, रात हूँ.

एक बहुत ही पोजिटिव नोट पर कविता समाप्‍त होती है और हमेशा, हर हाल में पोजिटिव रहने की सीख भी दे जाती है । ये जो संदेश है वह बेहद विचारणीय है कि क्‍यों ना हम अपनी ऊर्जा को सकारात्‍मक तरीके से उपयोग में लाए, राह कितनी भी ऊबड़-खाबड़ क्‍यों ना हो अपनी नेगेटिविटी में भी पोजिटिव एप्रोच रखना बड़ी बात होती है, आपको ढेरों बधाई । बहुत सुंदर शब्‍दांकन है, सादर

Comment by vijay nikore on December 11, 2013 at 7:46am

//मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
आवारा
भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.
जिंदगी सिसक रही है जहाँ
दम घोटूँ
एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है
बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.
सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.
(2)
मैं क्या करूँ
सूरज निकलता है
भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से
मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ
कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो
कभी किसी सन्नारी के गजरों में.//

सभी अंश सुन्दर हैं, पर यह तो बहुत ही मन को छू गए।

आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया कुंती जी।

Comment by coontee mukerji on December 10, 2013 at 6:58pm

जब किसी रचनाकार की कृति को सराहा जाता है तो उसे अपार हर्ष होता है और लिखने की प्रेरणा भी मिलती है. रचना की सार्थकता तभी है जब उसे कोई समझे और पढ़कर आनंदित हो. मुझे खुशी है कि आप सुधिजनो, इस रचना का रसास्वादन किया.आप सभी हृदय से धन्यवाद करती हूँ.

भाई आशुतोश जी,

काल गणना के अनुसार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष क्रम से प्रतिपदा से अमावस और पूर्णिमा तक, नित्य रात जन्म लेता है जवान होता है और सुवह तक उसका विलय हो जाता है..अलंकार की दृष्टि से देखिये तो इस रचना में अभिधा, लाक्षणा और व्यंजना है.

सादर

कुंती

Comment by umesh katara on December 10, 2013 at 5:07pm

वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह् 
सुन्दर और सार्थक रचना के लिये बधायी है

Comment by वेदिका on December 10, 2013 at 1:44pm

मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ.................चकित रह जाती हूँ आपकी लेखनी की गहराई देख कर! बहुत बहुत बधाई प्रेषित करती हूँ!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 10, 2013 at 12:41pm

आदरणीया कुंती जी ..जबरदस्त रचना ..गंभीर भाव गहन चिंतन ..तमाम दृश्य अदृश्य संकेत करती हुई रचना ...आदरणीया तारों के प्रकाश में, अमावस में
पूर्ण चंद्रमा की रोशनी में
मैं पूर्ण यौवन पाता ,,,,,,,,,,,,,इन पंक्तियों में अमावास और पूर्ण चन्द्रमा के उपस्थित में पूर्ण योवन की बात समझने में मुझे थोड़ी दुबिधा हो रही है कृपया मार्गदर्शन करने का कष्ट करें ,,गंभीर रचना में छुपे इस गहन मर्म को कदाचित समझ नहीं पा रहा हूँ ,..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Meena Pathak on December 10, 2013 at 12:02pm

आदरणीया कुंती दी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति | सादर बधाई स्वीकारें 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 11:42am

आदरणीया coontee जी

जब लेखनी  सशक्त हो तो जो कुछ निकलेगा अच्छा ही निकलेगा  i

आपकी लेखनी को प्रणाम i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2013 at 7:57am

आदरणीया कुंती जी , बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्ति हुई है , आपको हार्दिक बधाई !!!! मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ
स्वप्नलोक की सैर कराता
लेता हूँ सबको अपने बाहुपाश में.--------- बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ लगीं !!!! 

Comment by ram shiromani pathak on December 9, 2013 at 11:32pm

आदरणीया कुन्ती जी बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति  .... हार्दिक बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
21 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service