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भूख ... विजय निकोर

भूख  

 

 

यह सच्ची घटना कई साल पहले की है जब मैं मात्र १८ वर्ष का था। गुजरात के आनन्द शहर से दिल्ली जा रहा था। रास्ते में बड़ोदा (अब वरोदरा) स्टेशन पर ट्रेन बदलनी थी.. फ़्रन्टीयर मेल के आने में अभी २ घंटे बाकी थे। रात के लगभग ११ बजे थे। समय बिताने के लिए मैं स्टेशन के बाहर पास में ही सड़क पर टहलने चला गया। एक चौराहे पर छोटी-सी लगभग ५ साल की बच्ची खड़ी रो रही थी, रोती चली जा रही थी। मेरा मन विचलित हुआ। मैंने उससे पूछा..." क्या नाम है तुम्हारा?" ..वह रोती चली गई। पास में एक रेड़ी वाला घर जाने से पहले अपने फल टोकरी में डाल रहा था, कहने लगा, " बाऊ जी, इसे भूख लगी होगी, पास में फ़ुट्पाथ पर सो रहे लोगों में से किसी की बच्ची होगी, भूख लगी होगी, उठ कर चली आई होगी।"

 

मैंने चार केले खरीदे, एक उस रोती बच्ची को दिया, और उससे पुन: पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?"

अभी भी रोने के बीच उसके मुँह से निकला, "पगली"

"नहीं, तुम्हारा नाम क्या है?" ... और फिर वही जवाब, "पगली"।

 

उसका चेहरा जैसे भूख और गरीबी की कहानी हो, कितने गहरे प्रश्न समेटे हुआ था।मैंने उसे केला छील कर खाने को दिया, और उसकी उंगली पकड़ कर पास में लगभग २०० फ़ुट दूर फ़ुटपाथ पर सो रहे लोगों को जगा कर पूछता गया कि कहीं वह उस बच्ची को जानते हैं। पहले तो सब "न" ही कहते गए, पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था जब एक आदमी ने बताया कि यह पास में सो रहे "जुगल" की बेटी है। उसने जुगल को नींद से जगाया और मैंने इस बच्ची को उसे सोंपते हुए कहा "अरे भाई इस बच्ची का ख्याल रखा करो... यह वहाँ चौराहे पर खड़ी रो रही थी।"  पहले तो वह चुप, और फिर कहने लगा ..." साहब, हम तो भूल जाएँ कि आज सुबह से खाने को कुछ नहीं मिला, पर इस भूखी बच्ची को कैसे भुलाएँ ? भूखी,उठ कर चली गई होगी।"

 

जुगल के मुँह से दारू की बदबू आ रही थी। मैंने बचे हुए ३ केले जुगल को दिए, उसकी आँखों में गरीबी को पढ़ा, उसे कुछ पैसे दिए और डर लगा कि वह कहीं इनको खाने के बजाए दारू पर न खर्च दे  ... और मैं कितने सारे गहरे प्रश्न समेटे स्टेशन पर लौट आया, दिल्ली की फ़्रंटीयर मेल के लिए।

 

-------

-- विजय निकोर

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

 

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Comment

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Comment by Vindu Babu on November 9, 2013 at 10:01pm

Kya khu Aderneeya! is samsya ko bhut pas se dekhne ko awasar mila lekin muje yeh bat samajh nhi aa payi ki 'parivaar' sahaayak ya nivarak ho sakta hai,kai bar to parivar k lakh prayas karne pr b koi positivity dekhne ko nhi milti....samaaj ki awahelna us vyakti ko usi pravritti me our lipt kr deti hai...

Apne vicharneeya vindu pr prakash dala hai,aj bhi samaaj aisi visangatiyon se mukt nhi hai.

sader

Comment by vijay nikore on November 4, 2013 at 2:38pm

//न जाने मानव क्यों व्यसन के इतना वशीभूत हो जाता है जो जीवन रहते हुए भी जीवन खो बैठते हैं!
ईश्वर ऐसे दिग्भ्रमितों को सद्बुद्धि प्रदान करे।//

आदरणीया वंदना जी,

 

इस संस्मरण पर आपकी प्रतिक्रिया समाज के एक विशेष बिंदु पर प्रकाश डाल रही है...

वह है, मानव की किसी न किसी चीज़ पर निर्भरता, और उस निर्भरता का मूल कारण। प्राय: लोग किसी

कारण वशीभूत हो जाते हैं.... और समाज के पास इतना समय नहीं है कि वह कारण को खोजे और उनकी

सहायता करे।

 

सहायता परिवार ही कर सकता है...पर जिनका परिवार टूटा हुआ हो, वह अभागे बिना किसी

सहायता के और वशीभूत हो जाते हैं। समाज प्राय: किसी की कठिनाई को देखे बिना उसे दुतकार देता है।

 

आपका हार्दिक आभार, आदरणीया वंदना जी।

 

सादर,

विजय

Comment by Vindu Babu on November 1, 2013 at 12:42pm
क्षमा करें आदरणीय मैं इस मार्मिक सत्य कथा तक विलम्ब से पहुं सकी। वास्तव में आज भी समाज इस भीषण विसंगति से जूझ रहा है,न जाने मानव क्यों व्यसन के इतना वशीभूत हो जाता है जो जीवन रहते हुए भी जीवन खो बैठते हैं!
ईश्वर ऐसे दिग्भ्रमितों को सद्बुद्धि प्रदान करे।
sader
Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 11:50am

//आपके मार्मिक संस्मरण को पढ के बहुत से प्रश्न दिमाग़ मे उठ खड़े हुये है//

 

गरीबों की हालत को देख कर हम सब के मन में कितने प्रश्न उठते हैं, और

हम उनके लिए कितना कम कर पाते हैं .. उफ़...

 

आपकी प्रतिक्रिया से "प्यासा" फ़िल्म का गीत याद आया..."यह दुनियाँ अगर मिल भी जाए तो क्या है"

 

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय गिरिराज जी।

Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 11:43am

//प्रस्तुत हुई घटना आपके मानवेय पक्ष को उजागर कर रही है..//

आपने इस रचना के द्वारा मेरे भीतर देखा, आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सौरभ जी।

हम सभी के जीवन में कई घटनाएँ हमारी संवदनाओं को झकझोरती हैं,

और उनकी याद हमारे संग हमेशा के लिए रहती है।

 

 

Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 11:36am

//बेहद मार्मिक संस्मरण है //

यह संस्मरण आपको छू गया, आपको पढ़ना अच्छा लगा... मेरा इसे लिखना सार्थक हुआ। हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया प्रियंका जी।

Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 11:33am

//छोटी उमर में हमारी जिज्ञासाएं शायद हमें ज्यादा दुखों को इस प्रकार से संचित करने को बाध्य करतीं हैं//

आदरणीय विजय मिश्र जी, आपने सही कहा है,....और हाँ, और वह जिज्ञासाएं हमारे अस्तित्व को ढालती हैं।

 

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on October 25, 2013 at 11:28am

 

//बहुत मर्मस्पर्शी संस्मरण//

आदरणीय जितेन्द्र जी, सराहना के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 17, 2013 at 7:04pm

आदरणीय बड़े भाई , विजय जी आपके मार्मिक संस्मरण को पढ के बहुत से प्रश्न दिमाग़ मे उठ खड़े हुये है !!!! जिनका हल भी कुछ नही है !!!! स्व. साहिर साहब की दो लाइने याद आ गई --

  मुफ़लिसी हिस ए लताफत को मिटा देती है

  भूख आदाब के सांचों मे नही ढल सकती  !!!!!!    संस्मरण साझा करने के लिये आभार !!!!!!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 6:24pm

आप बहुत उदार हैं, आदरणीय. प्रस्तुत हुई घटना आपके मानवेय पक्ष को उजागर कर रही है..

सादर

कृपया ध्यान दे...

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