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मैं क्या हूँ

बहुत सोचा

पर सुलझी न गुत्थी

 

शब्द से पूछा तो वह बोला,

‘मैं ध्वनि हूँ अदृश्य

रूप लेता हूँ

जब उकेरा जाता है

धरातल पर’

 

पेड़ से पूछा तो बोला

‘मैं हूँ बीज का विस्तार’

‘और बीज क्या है?’

‘वह है मेरा छोटा अंश’

 

अजब रहस्य

विस्तार का अंश

अंश का विस्तार

खुलती नहीं रहस्य की पर्तें

एक सतत क्रम-

सूक्ष्म के विस्तार

विस्तार के सूक्ष्म होने का;

ध्वनि से शब्द-चित्र

शब्द का प्रतिध्वनित होना;

वाष्प से बूँद

बूँद से जल, नदी, सागर

फिर उनका वाष्पीकरण

 

चक्र है

पूरा ब्रहमाण्ड,

आकाश गंगा,

सौर मण्डल,

सभी ग्रह

 

धरती

घूमती है धुरी पर

परिक्रमण में सूर्य के

और इस धरती पर

सभी सजीव, निर्जीव के संग

मैं सदेह

 

पर देह छूटेगी न

तब

तब मैं ‘मैं’ होऊँगा

या कुछ और

कैसे देखूँगा तुम्हें हँसते

कैसे समझूँगा उदास हो

 

शायद हो जाऊँ हवा

और हवा के संग

यह धरती, आसमान,

चाँद, तारे, सूरज,

ग्रह, आकाशगंगा

सबको पार करते

पहुँच जाऊँ

सुदूर बहमाण्ड में

या उसके भी आगे

तब शायद समझ पाऊँ

यह सारा रहस्य

लेकिन सुना है

वहाँ तो शून्य है

हवा तो होती नहीं

तो, कैसे जाऊँगा मैं

वहाँ?

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on September 26, 2013 at 3:41am

शून्य को खो कर शून्य को पाना अच्छा लगता है
कभी कभी खुद से बतियाना अच्छा लगता है  ................

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 25, 2013 at 11:53pm

शब्द से पूछा तो वह बोला,

‘मैं ध्वनि हूँ अदृश्य

रूप लेता हूँ

जब उकेरा जाता है

धरातल पर’

बेहद खुबसूरत भाव, बहुत बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी

Comment by वेदिका on September 25, 2013 at 11:53pm

अन्तः करण से प्रस्फुटित धाराप्रवाह रचना पर बधाई!!

Comment by annapurna bajpai on September 25, 2013 at 11:48pm

आ0 बृजेश जी... , शब्द हीन हूँ , क्या लिखूँ बस इतना ही धारा प्रवाह रचना हेतु बहुत बधाई । 

Comment by बृजेश नीरज on September 25, 2013 at 11:22pm

अफार्निया सरिता जी आपका हार्दिक आभार! कृपया ये उल्लेख करें कि आप कहाँ उलझ गयीं ताकि मैं तदनुसार सुधर कर सकूं.

Comment by Sarita Bhatia on September 25, 2013 at 11:17pm

जीवन की गहराई को दर्शाती उत्तम रचना कुछ जगह उलझ गए 

Comment by बृजेश नीरज on September 25, 2013 at 10:17pm

आदरणीया राजेश जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से हौसला बढ़ा है मेरा.

अंत को लेकर मैं भी सशंकित था. आप लोगों के मार्गदर्शन की आवश्यकता थी मुझे इस बिंदु पर!

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 25, 2013 at 10:10pm

वाह्ह्ह्ह ब्रजेश जी मैं तो कविता के प्रवाह में बहती चली गई हाँ अंत इससे बेहतर हो सकता था ,खैर ये भी कम नहीं है जीवन की ,प्रकृति की गूढ़ ग्रंथियों को खोलती ये प्रस्तुति बेहद अच्छी बनी हार्दिक बधाई आपको |

Comment by बृजेश नीरज on September 25, 2013 at 10:00pm

आदरणीया गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बल मिला!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 9:47pm

आदरणीय  बृजेश भाई स्व की खोज मे उपजे सवाल का जवाब खोजना ही असल साधना है !! इस ओर प्रेरित करती आपकी रचना के लिये आपको बहुत बधई !! सुना है जवाब भीतर के शून्य से ही आता है !!

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