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ग़ज़ल -- "भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही "

2122 2122 2122 212

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही

*****************************

तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब होती रही         

चीख़ दीवारों से टकरा सर कहीं धुनती रही         

 

इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा

और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही

 

रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं          

रात भर कोई शमा ख़ु को कहीं खोती रही        

 

मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा          

हादिसे हँसते रहे र ज़िंदगी रोती रही       

 

इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला

और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही

 

सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से           

कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही 

 

मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी 

कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही

 

एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही                                                    

 

मुख़्तसर--संक्षिप्त

कातिबे तक़दीर---भाग्य लिखने वाला  

ग़ैरत ---स्वाभिमान

मौलिक एवँ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by अरुन 'अनन्त' on September 15, 2013 at 12:33pm

वाह वाह लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने क्या कहने पढ़कर आनंद आ गया कुछ अशआर तो दिल को छू गए आदरणीय दिली दाद कुबूल फरमाएं.


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2013 at 10:39am

आदरणीय राजेश कुमारी जी , आप मुझे शर्मिन्दा न करें , आपने मेरे भले के लिये ही सुझाव दिया था , मै अभी सीख ही तो रहा हूँ !! आगे भी आपके मार्ग दर्शन और स्नेह की ज़रूरत ऐसे ही रहेगी !! सादर !!


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Comment by rajesh kumari on September 15, 2013 at 10:33am

आदरणीय वीनस केसरी जी गुस्ताखी माफ़ !! नहीं नहीं आपने तो एक गुरु का धर्म निभाया है मैंने अपने अल्प ज्ञान से जो इस्स्लाह दी थी  उसके लिए तो मुझे आदरणीय गिरिराज जी से गुस्ताखी माफ़ कहना चाहिए ,आपने बहुत बातें स्पष्ट की इस बात की ख़ुशी हो रही है ,और अपना गुरु धर्म निभाया आपकी तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ ज्ञान वृद्धि हेतु  ये इता दोष एक बार आप यहाँ भी समझा दीजिये आपसे गुजारिश है  


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2013 at 9:47am

आदर्णीय अभिनव भाई , आपने तो सराहना मे इतनी बडी बात कह दी , बहुत खुशी हुई !! बहुत आभार !!


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2013 at 9:44am

आदरणीय , वीनस भाई ,  क्या कहूँ , इतने विस्तार से और इतना अच्छा कमेंट देख के आनन्दित हूँ , आपका बहुत बहुत आभार !! इता दोषको समझ्नेका प्रयास जारी है , थोडी मुश्किल चीज़ लग रही है !! अपका पुनः हार्दिक आभार !!

Comment by Abhinav Arun on September 15, 2013 at 8:48am

मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा हादिसे हँसते रहे पर ज़िंदगी रोती रही ...वाह वाह श्री गिरिराज जी अरसे बाद ग़ज़ल की भूख को तृप्त करने वाली ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ ..आह्लादित हूँ औपचारिकता नहीं ह्रदय से बधाई आदरणीय कहन और शिल्प हर तरह से कामयाब यादगार ग़ज़ल हुई है ..शुभकामनायें

Comment by वीनस केसरी on September 15, 2013 at 1:17am

आज फुरसत से मंच पर मौजूद हूँ और कई ग़ज़लों पर बहुत कुछ कहते हुए इस ग़ज़ल पर पहुँच रहा हूँ

मुतासिर हुआ हूँ अंदाज़े बयाँ से ... निः संदेह ग़ज़ल कहने का यही लहजा होता है ... बात को इशारों में कहा जाए एक शेर के कई पहलू हों .. अनेक अर्थ हों ... भाई वाह

मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी 

कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही

 

एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही      ........... शानदार तगज्जुल के लिए ढेरो दाद ...



गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ आदरणीया राजेश कुमारी जी की दोनों इस्लाह से अपनी असहमति प्रकट करता हूँ 

ख्याल का वज्न १२१ होता है न कि २१ अलिफ़ वस्ल अशआर की खूबसूरती को बढाता ही है इस लिहाज से मिसरा पहले बहर में था जिसे इस्लाह के साथ ही बेबहर कर दिया गया है 

रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं          

रात भर कोई शमा ख़ु को कहीं खोती रही       

ज़बान के लिहाज से ये शेर बिलकुल दुरुस्त है ठानी करने से अल्फाज़ की अदायगी में ऐब पैदा हो रहा है                               

साथ ही जिस शेर को राजेशकुमारी जी ने पूरे नंबर दिए हैं उस पर यह कहना है कि ख़्वाब टूटने का सिलसिला कि जगह बेहतर होता कि ख़्वाबों के टूटने का सिलसिला होता और सानी में से भर्ती का लफ़्ज़ है इसकी जगह कुछ लफ़्ज़ रखा जाता तो लुत्फ़ कई गुना बढ़ जाता

एक लघु प्रयास प्रस्तुत है .. (शाइर खुद इस शेर को और बेहतर ढंग से कह सकते हैं)


था इधर ख्वाबों के मेरे टूटने का सिलसिला

और फ़ितरत उस तरफ कुछ ख्व़ाब फिर बुनती रही

मतले में इता दोष प्रस्तुत हो रहा है इससे बचना होगा ....

एक और शेर जो इस ग़ज़ल में बेहतरीन हुआ है वो यह है

इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा

और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही

मगर इसमें भी आँख को आखों होना चाहिए .....

 


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 3:21pm

आदरणीया आन्नपूर्णा जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 3:20pm

आदरणीय जितेन्द्र जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया !!


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 3:19pm

आदरणीय आशुतोष जी , गज़ल क्कीए सराहना के लिये आपका हारदिक आभार !!

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