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मौन शब्द
 
कहे और अनकहे के बीच बिछे
अवशेष  कुछ  शब्द  हैं  केवल,
शब्द भी जैसे हैं नहीं,
ओस-से टपकते शब्द
दिन चढ़ते ही प्रतिदिन
वाष्प बन उढ़ जाते हैं
और मैं सोचता हूँ ... मैं
आज क्या कहूँगा तुमसे ?
 
अनगिनत  भाव-शून्य  शब्द                                               
इस अनमोल रिश्ते   की  धरोहर,                                                                                            
व्याकुल प्रश्न, अर्थ भी व्याकुल
मिथ्या शब्दों की मिथ्या अभिव्यक्ति,
एक ही पुराने रिश्ते से रिसता
रोज़- रोज़ का एक और नया दर्द ...
बहता नहीं है , बर्फ़-सा
जमा रह जाता है।
 
फिर भी कुछ और मासूम शब्द
जाने किस तलाश में चले आते हैं,
उन  शब्दों  के  भावों से शराबोर 
मैं वर्तमान  को  भूल  जाता  हूँ ।
तुम्हारी उपस्थिति में हर बार
यह शब्द  नि:शब्द हो जाते हैं
और मैं कुछ भी कह नहीं पाता,
शब्द उदास लौट आते हैं।
 
तुम्हारी आकृति यूँ ही ख़्यालों में
हर  बार,  ठहर कर, खो  जाती  है,
और मैं  भावहीन  मूक  खड़ा
अपने शब्दों की संज्ञा में उलझा
ठिठुरता रह जाता हूँ ।
यह मौन शब्द
असंख्य  असंगतियों  से   घिरे
मुझको संभ्रमित छोड़ जाते हैं।
 
इन उदासीन, असमर्थ, व्याकुल
शब्दों की व्यथा
भीतर  उतर आती है,
सिमट  रहा  कुछ  और  अँधेरा
बाकी रात  में  घुल  जाता  है,
और उसमें तुम्हारी आकृति की
एक और असाध्य खोज में
यह शब्द  छटपटाते  हैं ... 
तुमसे  कुछ  कहने  को,  वह 
जो मैं आज तक कह न सका।
 
हाँ, तुमसे कुछ सुनने की
कुछ कहने की  जिज्ञासा
अभी  भी  उसी  पुल  पर
हर रोज़ इंतजार करती है।
             ---------
 
 -- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 9:09pm

आदरणीय "शब्द" को सुंदर अर्थ देकर बिल्कुल ही नि:शब्द कर दिया, वाह !!! बधाइयाँ....

Comment by रविकर on July 14, 2013 at 8:55pm

सुन्दर भाव
आदरणीय-
शुभकामनायें

लौटे शब्द उदास हो, विचलित होता दास |
उनका अनुमोदन रखे, अर्थ हमेशा ख़ास ||

Comment by D P Mathur on July 14, 2013 at 6:39pm

आदरणीय विजय निकोर जी आपकी इस रचना में मन की गहराई और वेदना की अनुभूति पढ़ने से  ज्यादा महसूस हो रही है इसे रचित करते समय आपके मन के भावों को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है आपको हहृय से बधाई !

Comment by Vindu Babu on July 14, 2013 at 4:40pm
परम् आदरणीय निकोर सर सादर अभिनन्दन! इधर किसी कारणवश मैं ओबीओ से दूर रही। इस मंच की जिन जिन उत्कृष्टताओं ने मुझे यहाँ शीघ्र पुन: उपस्थित होने को बाध्य किया उनमें आपकी रचनाएं भी थीं आदरणीय।
रचना अत्यन्त मनमोहक है।
रचना में भावों की इतनी प्रबलता है कि अतुकान्तता ही अप्रतिम साहित्यिक सौन्दर्य का भान करा रही है।
सादर बधाई स्वीकारें महोदय!
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 14, 2013 at 4:28pm
तुम्हारी उपस्थिति में हर बार
यह शब्द  नि:शब्द हो जाते हैं
और मैं कुछ भी कह नहीं पाता,
शब्द उदास लौट आते हैं।
यह मौन शब्द
असंख्य  असंगतियों  से   घिरे
मुझको संभ्रमित छोड़ जाते हैं।
यह शब्द  छटपटाते  हैं ... 
तुमसे  कुछ  कहने  को,  वह 
जो मैं आज तक कह न सका -  
इन भावों में कितनी गहरी  वेद्दना भरी है, जो अनकहे ही बहुत कुछ कह रहे है |जो कुच्छ न कह पाता,
वेदना में जीता है, वह कवि बनकर अपनी वेदना कागज़ पर उकेरता है, जैसे आपने उकेरी
बहुत सुन्दर अन्तरंग बाहव लिए आपकी कलम से पगी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई श्री विजय निकोरे जी  
 
Comment by Shyam Narain Verma on July 13, 2013 at 5:52pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.

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