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बिजली मिस्त्री की कहानी / जवाहर

मई का महीना, जेठ की दुपहरी

पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है 

धरती जलती और सूरज तपता है.

एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर 

जूते दस्ताने और हेलमेट पहन 

क्या खटाखट चढ़ता है. 

सेफ्टी बेल्ट के एक हुक को

ऊपर के पट्टी में फंसाता 

दूसरे हुक को खोलता,

ऊपर और ऊपर चढ़ता है

 

"अरे क्या सूर्य से टकराएगा?

सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?" 

वह मुस्कुराता

अपने साथियों को इशारे से समझाता 

अलुमिनियम के तारों को 

रस्सों के सहारे ऊपर खींचता

पोर्सीलीन के इन्सुलेटर में फंसाता

नट बोल्ट और पाने के सहारे मजबूती से कसता

नीचे खड़ा सुपरवाईजर देता कुछ निर्देश

मजदूर भी मुस्कुरा कर आता पेश

पेट की आग से ज्यादा नहीं यह गर्म सूरज

यह मजदूर है मिहनत का मूरत

आपके घरों में बिजली बत्ती जल सके  

पंखे कूलर और ए.सी. चल सके 

आप पी सकें फ्रिज का ठंढा पानी 

ए सभी है बिजली रानी की मेहरबानी 

एक मिनट को अगर बिजली गुल हो जाती है 

गर्मी में हमें नानी याद आ जाती है 

पर बिजली जो हमारे घरों तक आती है 

क्या इन मजदूरों को सकूं दे पाती है 

वे तो कुछ रुपयों के सहारे

अपने परिवार के संग

अँधेरे में ही रहता है.

गर्म हवा के झोंकों से पसीने जब सूखते हैं

वाह! क्या शीतलता का अनुभव करता है! 

(मौलिक व अप्रकाशित)

- जवाहर

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Comment

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 28, 2013 at 5:29am

आदरणीय अशोक भाई जी, सादर अभिवादन!

आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का आभार!

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 26, 2013 at 8:01am

आदरणीय जवाहर जी भाई सादर, वाह! रचना के प्रथम भाग में तो लगा जैसे लाईनमेन ट्रेनिग हो रही हो, किन्तु दुसरे भाग को आपने बिना प्रवाह बाधित किये बिजली मिस्त्री की पीड़ा को बहुत सुन्दरता से उकेरा है. वाह! बहुत सुन्दर, सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 24, 2013 at 7:28am

श्रद्धेय सौरभ साहब, सादर अभिवादन!

आपके स्नेह और आशीर्वाद को मैं अंतर्मन से स्वीकार करता हूँ. अगर हो सका तो अवश्य ही बेहतर करने की कोशिश करूंगा,,,, यथेष्ठ सम्मान के साथ  - जवाहर 


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Comment by Saurabh Pandey on May 23, 2013 at 8:35am

आदरणीय जवाहर लालजी, आपने रचनाकार के लिहाज से एक बार फिर हमें चौंकाया है. मैं इस कविता की टीस से दंग हूँ. एक तो जिस कामग़ार की ज़िन्दग़ी और उसके हालात इन पंक्तियों में बयान हुए हैं वे कई-कई कारणों से मेरे माजी का हिस्सा रहे हैं. दूसरे शिल्प के तौर पर यह कविता थोड़ी अच्छी, अच्छी से बहुत अच्छी के बीच बार-बार बाउन्स होती बढ़ती है.

कोई संदेह नहीं कि कथ्य में निर्भीकता है. जिस तरह से आपने कविता का प्रारम्भ किया है वो पाठकों को एक बारग़ी अपने समेटे में ले लेता है.

मई का महीना, जेठ की दुपहरी

पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है 

धरती जलती और सूरज तपता है.

एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर 

जूते दस्ताने और हेलमेट पहन 

क्या खटाखट चढ़ता है... .. .............   .. . इन पंक्तियों में यह अवश्य है कि सपाटबयानी हावी है लेकिन यह सपाटबयानी ही इन पंक्तियों की खूबसूरती क्या जान बन गयी हैं..  सिर्फ़ बात, नो बकवास  की शैली में. इन्हीं के कारण आगे के कथ्य के लिए रास्ता बनता है, उत्सुकता जगती है. बहुत सुन्दर.

"अरे क्या सूर्य से टकराएगा?

सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?" 

वह मुस्कुराता

अपने साथियों को इशारे से समझाता.. .   .  अह्हाह ! क्या बिम्ब है ! और क्या दृश्य उभरता है !

आप पी सकें फ्रिज का ठंढा पानी 

ए सभी है बिजली रानी की मेहरबानी 

एक मिनट को अगर बिजली गुल हो जाती है 

गर्मी में हमें नानी याद आ जाती है......... .. . इन पंक्तियों ने ही वो झटके दिये हैं. जिनकी मैं बात कर रहा था. अच्छी खासी कविता भाषण हो जाती है. इन्हीं पंक्तियों के बरअक्स अन्य पाठकों ने भी संभवतः अपनी बातें कही हैं.

यह अवश्य है कि सपाटबयानी एक दुधारी तलवार है, जो कभी कायदे से चल जाती है कभी कायदे से चला डालती है.

अपने बीच के लड़ते-भिड़ते उन लाखों मशक्कतकशों की बात ऐसी ही कविताएँ करती हैं, कर सकती हैं. लेकिन उनका कथ्य ही नहीं तथ्य और संप्रेषण भी किसी विन्दु पर हल्का नहीं होना चाहिये. 

सर्वोपरि, आपकी कविता ज़िन्दग़ी से लड़ते-भिड़ते लोगों की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ आपकी भाषायी कमज़ोरी से भी लड़ने को विवश दिखती है. यह आपके रचनाकार की कमी है. इस पर दोष को नियंत्रित करना ही होगा. 

कविता को बस कविता की तरह रखने और कहने की कोशिश के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई.. .  

शुभम्

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 23, 2013 at 5:45am

आदरणीय श्री जीतेन्द्र जी, सादर अभिवादन!

आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का आभार! 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 23, 2013 at 5:43am

आदरणीय वेदिका जी, सादर अभिवादन!

आपके सुंदर परामर्श का बहुत बहुत आभार! अवश्य कोशिश करूँगा!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 23, 2013 at 5:39am

आदरणीय बिजेश जी, सादर अभिवादन!

कोशिश करूँगा कि आपके परामर्श पर अमल कर सकूं. दरअसल यह जल्दी बाजी में की गयी आँखों देखा हाल है! आगे से ध्यान रखूंगा कि रचना में सौंदर्य प्रदान किया जाय! आपकी रचनात्मक प्रतिक्रिया का आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 22, 2013 at 11:48pm
aadrniy Jawhr lal singh ji....is sal ki bheeshn garmi ko dekhte huye, us bijli mistri ke upr pathkon ka dhyan kendrit krwaya hai..jo khud, dhup garmi me kam krke logo ke liye bljli ko sucharu chala ske....aur bdi sunder panktiyon me
Comment by वेदिका on May 22, 2013 at 10:45pm

अतुकांत शैली का प्रयास अनायास ही उन बिजली  श्रमिक भाइयों की याद दिला गया ...जिन्हें हम घर के आराम में भूल जाते है ...

आदरणीय बृजेश जी का निवेदन पढिये ...पुनः उसे क्या दोहराना 
सादर!
Comment by बृजेश नीरज on May 22, 2013 at 9:35pm

बहुत ही सुंदर भाव हैं आदरणीय! अच्छा प्रयास! इस गर्मी में बिजली का आनंद हम कहां उन बिजली कर्मचारियों के श्रम को याद रखते हैं। बधाई आपको!
एक निवेदन कि रचना पर गद्यात्मकता को हावी न होने दिया करें।
सादर!

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