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भोर के पंछी

तुम ...
रहस्यमय भोर के निर्दोष पंछी
तुमसे उदित होता था मेरा आकाश,
सपने तुम्हारे चले आते थे निसंकोच,
खोल देते थे पल में मेरे मन के कपाट
और मैं ...
मैं तुम्हें सोचते-सोचते, बच्चों-सी,
नींदों में मुस्करा देती थी,
तुम्हें पा लेती थी।

पर सुनो!
सुन सकते हो क्या ... ?
मैं अब
तुम्हें पा नहीं सकती थी,
एक ही रास्ता बचा था केवल,
मैं .. मैं तुमसे दूर जा सकती थी,
दू...र, बहुत दूर चली गई।

पर दूर जाती छूटती दिशाओं को पकड़ न सकी
अपनी कुचले-इरादों-भरी ज़िन्दगी से उन्हें मैं
हटा न सकी, मिटा भी न सकी,
हाँ, मिटाने के असफ़ल प्रयास में हर दम
मैं स्वयं कुछ और मिटती चली गई ....

जो कभी देखोगे मुझको तो पहचानोगे भी नहीं,
मैं वह न रही कि जिसको तुम जानते थे कहीं,
प्यार से पुकारते थे तुम,
या, शायद पुकारते हो प्यार से अभी भी
अपनी दीवानगी में ... कभी-कभी।

प्रवाहित हवाओं को मैं रोक न सकी,
गति को उनकी मैं थाम न सकी
गंतव्य को जान न सकी।
यह हवाएँ जो ले आती हैं तुम्हारी पुकार
हर भोर मेरे पास, इतनी पास,
यह मुझको बींध-बींध जाती हैं ...
मेरे भोर के सुनहले पंछी
तुम तो वही रहे
मैं वही रह न सकी।
--------

विजय निकोर

vijay2@comcast.net

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Comment by vijay nikore on January 5, 2013 at 1:23am

विजय गोयल जी और राजीव मिश्र जी,

"like" के लिए हार्दिक धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by नादिर ख़ान on January 4, 2013 at 10:28pm

जो कभी देखोगे मुझको तो पहचानोगे भी नहीं,
मैं वह न रही कि जिसको तुम जानते थे कहीं,
प्यार से पुकारते थे तुम,
या, शायद पुकारते हो प्यार से अभी भी
अपनी दीवानगी में ... कभी-कभी।

आदरणीय विजय जी दिल को छूती, कोमल रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.

Comment by vijay nikore on January 4, 2013 at 11:23am

आदरणीय अशोक जी,

कविता की सराहना के लिए आपका अतिशय धन्यवाद।

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 4, 2013 at 11:21am

आदरणीय राजीव जी,

कविता के भाव आपको अच्छे लगे, मेरी कविता धन्य हो गई।

सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 3, 2013 at 10:37pm

सादर, विजय साहब.

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 3, 2013 at 10:15pm

वक्त के बदलाव और एहसास पर लिखी सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय निकोर जी सादर.

Comment by Rajeev Mishra on January 3, 2013 at 6:37pm

vijay ji namaskar 

tum to vahi rahe 

mai wo rah na saki 

anttah bahut sundar bhav !

Comment by vijay nikore on January 3, 2013 at 6:19pm

आदरणीय संदीप जी,

कविता की सराहना के लिए आपका अतिशय धन्यवाद ।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 3, 2013 at 6:18pm

आदरणीया सुमन जी,

समय बीत जाता है, लोग चले जाते हैं,

पुकार फिर भी गूँजती रहती है,

जो आए गए छ्टपटाती है,

तिलमिलाती है, झकझोरती है।

विजय निकोर.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 3, 2013 at 3:47pm

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है सर जी सादर बधाई स्वीकार कीजिये

कृपया ध्यान दे...

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