For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे - वीनस

मित्रों, एक ताज़ा ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है ....


जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे
क्या परिंदे यहाँ आने जाने लगे

खेत के पार जब कारखाने लगे
गाँव के सारे बच्चे कमाने लगे

फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे

वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे

वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे

चंद खुशियाँ जो मेहमां हुईं मेरे घर
रंजो गम कैसा तेवर दिखाने लगे

मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे

""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
बह्र -ए- मुतदारिक मुसम्मन सालिम

Views: 831

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by वीनस केसरी on August 18, 2012 at 11:54pm

शुक्रिया सौरभ जी
अनेकानेक शुक्रिया 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2012 at 8:37am

माला बनाने के क्रम में मोती की जगह शेर पिरो दिये. वाह ! लो, ग़ज़ल हो गयी. क्या कहा है आपने वीनस जी और क्या ही खूब कहा है. भाव हैं, वज़्न है और तेवर है. इन अश’आर को विशेष रूप बार-बार याद कर रहा हूँ.

वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे
मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे  

 

Comment by वीनस केसरी on August 14, 2012 at 1:23am

डॉ सूर्या बाली जी
अम्बरीश श्रीवास्तव जी
आदरणीय योगराज जी
संदीप जी
सुरेन्द्र जी
विवेक जी
और
उमाशंकर जी

आप सभी ने ग़ज़ल को सराहा और इतना मान दिया इस जर्रा नवाजी के लिए तहे दिल से शुक्रिया

Comment by UMASHANKER MISHRA on August 13, 2012 at 11:27pm

वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे....क्या बात है वीनस जी इतनी गहराई की उम्मीद आपसे ही की जा सकती है

समय हाथ से निकला जा रहा है फिर भी मै  होश में नहीं आया

Comment by विवेक मिश्र on August 13, 2012 at 7:07pm

/जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे
क्या परिंदे यहाँ आने जाने लगे/-
बढ़िया मतला..

/खेत के पार जब कारखाने लगे
गाँव के सारे बच्चे कमाने लगे/-
बाल मजदूरी पर अच्छा शे'र..

/फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे/-
वाह.. आज के सियासी माहौल पर फिट बैठता और मेरी नज़र में हासिल-ए-ग़ज़ल शे'र.

/वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे/-
एकदम सटीक शे'र. आजकल सच कौन सुन पाता है साहब.. राहत इन्दौरी साहब के दो शे'र याद आते हैं कि-
"झूठों ने झूठों से कहा है, सच बोलो-
सरकारी ऐलान हुआ है, सच बोलो-
घर के अन्दर झूठों की एक मण्डी है
दरवाजे पर लिखा हुआ है, सच बोलो-"

/वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे/-
मिसरा-ए-उला कमाल का हुआ है, शायद मेरी समझ का फेर हो, पर सानी अपेक्षाकृत कमजोर सा लग रहा है.

/चंद खुशियाँ जो मेहमां हुईं मेरे घर
रंजो गम कैसा तेवर दिखाने लगे/-
बहुत खूब.. अच्छा शे'र है.

/मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे/-
वाह.. क्या खूब है.. इसे कहते हैं 'क्लोज-अप कॉन्फिडेंस' वाला शे'र. :)
एक अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 13, 2012 at 7:06pm

फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे

मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे

प्रिय वीनस जी गूढ़ अर्थ के साथ सामाजिक परिदृश्य झलका अच्छी तस्वीर खिंची  ..खूबसूरत गजल,  बधाई ..
जय श्री राधे 
सुन्दर गजल ...
भ्रमर ५ 
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on August 13, 2012 at 6:18pm

फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे----- अय-हय-हय क्या बात है जनाब!! हक़ीक़त की क्या मुकम्मल तस्वीर पेश की!

मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे-----  भई हम भी उन्हीं लोगों में से हैं! :-)

लाजवाब-बेमिसाल अश'आर से लैस एक जानदार-शानदार ग़ज़ल की पेशकश पर दिली मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं मित्र!


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 13, 2012 at 4:02pm

भई वाह, बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है वीनस जी. ढेर सारी दाद पेश है - स्वीकार करें.

Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 13, 2012 at 2:32pm

//फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे

वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे//

वाह वीनस भाई वाह ..........बहुत बेहतरीन व सामयिक गज़ल कही है आपने .........एक एक शेर अपने आप में बेमिसाल है ...बहुत बहुत मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं .....

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on August 13, 2012 at 10:20am

वीनस भाई बहुत उम्दा ग़ज़ल से नवाजा है इस मंच को आपने ...एक एक शेर माशाल्लाह  लाजवाब है ...खास कर ये शेर तो ग़ज़ब का है भाई...

वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे॥

दिली दाद कुबूल करें !!

 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

शोक-संदेश (कविता)

अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि आज हमारे बीच वह नहीं रहे जिन्हें…See More
8 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"बेहद मुश्किल काफ़िये को कितनी खूबसूरती से निभा गए आदरणीय, बधाई स्वीकारें सब की माँ को जो मैंने माँ…"
9 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी में (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। उत्तम गजल हुई है। हार्दिक बधाई। कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

२१२२       २१२२        २१२२   औपचारिकता न खा जाये सरलता********************************ये अँधेरा,…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post छन्न पकैया (सार छंद)
"आयोजनों में सम्मिलित न होना और फिर आयोजन की शर्तों के अनुरूप रचनाकर्म कर इसी पटल पर प्रस्तुत किया…"
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन पर आपकी विस्तृत समीक्षा का तहे दिल से शुक्रिया । आपके हर बिन्दु से मैं…"
Tuesday
Admin posted discussions
Monday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपके नजर परक दोहे पठनीय हैं. आपने दृष्टि (नजर) को आधार बना कर अच्छे दोहे…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"प्रस्तुति के अनुमोदन और उत्साहवर्द्धन के लिए आपका आभार, आदरणीय गिरिराज भाईजी. "
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service