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मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२
**
आग में जिसके ये दुनिया जल रही है
वह सियासत कब तनिक निश्छल रही है।१।
*
पा लिया है लाख तकनीकों को लेकिन
और आदम युग में दुनिया ढल रही है।२।
*
क्लोन का साधन दिया विज्ञान ने पर
मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है।३।
*
मान मर्यादा मिटाकर पाप करती
(भूल जाती मान मर्यादा सदा वह)
भूख दौलत की जहाँ भी पल रही है।४।
*
गढ़ लिए मजहब नये कह बद पुरानी
पर न सीरत एक की उज्वल रही है।५।
*
दौड़ती नफरत हमेशा फिर रही जब
प्रीत क्यो अभिशाप सी निश्चल रही है।६।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2025 at 5:43pm

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन और अच्छे सुझाव के लिए आभार।
पाँचवें शेर में कुछ बदलाव किया है। अगर बात न बनी हो तो अपनी ओर से कुछ सुझाएँ। सादर

कह पुरातन को बुरा मजहब बने नव
पर न सीरत एक की उज्वल रही है।५।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2025 at 11:49am

आ. लक्ष्मण धामी जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
दो तीन सुझाव हैं,
.
वह सियासत भी कभी निश्छल रही है
.
लाख तकनीकें नई अपनाई जाएं 
फिर भीदिम  युग में दुनिया ढल रही है.
.
बस इसी तरह अन्य अशआर पर काम किया जा सकता है .
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 30, 2025 at 2:49pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , अच्च्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयां .. 
म्म्तले  का उला 

आग में जिसके ये दुनिया जल रही है    या   आग में जिसकी  ये दुनिया जल रही है

सानी 

वह सियासत कब तनिक निश्छल रही है। या  वह सियासत कब भला  निश्छल रही है।

पांचवा शेर  शायद अपनी बात कह नहीं पाया है , देखिएगा 

गढ़ लिए मजहब नये कह बद पुरानी
पर न सीरत एक की उज्वल रही है।५।

अंतिम  शेर 
दौड़ती नफरत हमेशा फिर रही जब
प्रीत क्यो अभिशाप सी निश्चल रही है।
या  
दौड़ती नफ़रत हमेशा हर जगह , तब 
प्रीत क्यों अभिशप्त सी निश्चल  रही है 
 
स्वास्थ प्राप्ति के बाद बहुत समय तक ग़ज़ल से दूर रहा हूँ , इसलिए बहुत  विश्वास से मैं अभी कुछ कहने योग्य खुद को नही पाता , .. गुणी जन अगर कुछ और सलाह दें तो उन्हें अधिक महत्व दीजिएगा 

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