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उसको भाया भीड़ का होकर खो जाना -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२


हाथ पकड़ कर चाहा जिसका हो जाना
उसको भाया भीड़ का होकर खो जाना।१।
**
किस्मत किस्मत रटते सबको देखा पर
एक न पाया जिस ने किस्मत को जाना।२।
**
मीत  अकेलेपन  सा  कोई  और  नहीं
लेकिन ये भी सब  को पाया तो जाना।३।
**
नींद  न  आये  तो  ये  कैसे  भूलें  हम
झील किनारे गोद में सर रख सो जाना।४।
**
पीर हमें अब लगती सच में अपनी सी
फूल के  बदले  पथ में  काँटे  बो जाना।५।
**
बाद  तुम्हारे  तम  में  बैठे  अलसाये
कौन जलाये साँझ में दीपक रोजाना।६।
**
                            (५.१०.२०२०)

मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 14, 2020 at 8:25pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।

तीसरे शे'र का भाव समझ नहीं आया, चौथे शे'र के सानी मिसरे में 'सर रख' की वज्ह से तनाफ़ुर है 'सर रख' की जगह 'रख सर' कर सकते हैं। सादर। 

Comment by Samar kabeer on October 14, 2020 at 11:56am

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'कौन जलाये साँझ में दीपक रोजाना'

इस मिसरे में रदीफ़ 'जाना' की बजाय "ज़ाना" हो गई है, देखियेगा ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2020 at 11:55am

आ. लक्ष्मण जी,

ग़ज़ल के प्रयास के लिए बधाई ..अंतिम शेर में रोज़ाना सहीह शब्द है जिस के चलते शेर ख़ारिज हो रहा है. देखिएगा 
सादर 

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