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हौंसलों के पंख (गीत).......डॉ0 प्राची


हौसलों के पंख ओढ़े
स्वप्न फिर थिरके सभी,
चूम कर अपना धरातल
उड़ चले विस्तार को...

क्या हुआ गत वक्त की यदि बेड़ियाँ थीं क्रूरतम
क्या हुआ जख्मी हृदय यदि दर्द से होते थे नम
स्वप्न में कण भर धड़कते प्राण जब तक शेष हैं
जीतती है आस तब तक, हारते विद्वेष हैं
हर विगत की आँच पर रख
नर्म भावों की छुअन,
बढ़ चले हैं स्वप्न फिर
युग के नवल शृंगार को...

हो निशा चाहे घनेरी ये चलेंगे पार तक
राह नित गढ़ते बढ़ेंगे रौशनी केे द्वार तक
दृढ़ हृदय संकल्प ले सन्मार्ग पर बढ़ता जहाँ
भोर खुद पलकें बिछाए राह तकती है वहाँ
भीत मन को जीत कर बस
लक्ष्य पर टाँके नज़र,
बढ़ चला आतुर बटोही
फिर तमस संहार को...

मृग फिरे अनभिज्ञ कब तक, अब तो कस्तूरी मिले
चाँद के अभिमान को कब तक अमावस्या छले
याचना संदल करे क्यों, कीर्ति उसका भाग्य है
क्यों मणिक अपनी प्रभा के खोजता सब साक्ष्य है
मान औ' पहचान अपनी
बाजुओं में थामने,
सर उठा कर स्वप्न दौड़े
श्राप से उद्धार को...

( मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 27, 2015 at 8:51pm

विस्तार की ओर उड़ना , युग के नवल शृंगार की कामना , तमस के संहार की आतुरता और शाप से उद्धार  हेतु दौड़ते स्वप्न ----सभी मनोरम कल्पना  की सृष्टि ही नहीं करते  सोचने के लिए भी बाध्य करते है . इस सुन्दर गीत के लिए आपको बधाई .

Comment by Manan Kumar singh on December 27, 2015 at 6:42pm
बहुत बेहतरीन गीत आदरणीया,बधाई
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 27, 2015 at 8:38am
गुजरते वर्ष और आने वाले वर्ष की बेला पर अत्यंत सकारात्मक आशावादी दृष्टिकोण से परिपूर्ण मार्गदर्शक उत्साहवर्धक शिल्पबद्ध गीत की प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया डॉ.प्राची सिंह जी ।

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