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इन्साफ का हिसाब लगाया करे कोई।
होता कहीं तलाक़ हलाला करे कोई।।
उनको तो अपने वोट से मतलब था दोस्तों ।
जिन्दा रखे कोई भी या मारा करे कोई।।
मजहब को नोच नोच के बाबा वो खा गया ।
बगुला भगत के भेष में धोका करे कोई ।।
लूटी गई हैं ख़ूब गरीबों की झोलियाँ ।
हम से न दूर और निवाला करे कोई ।।
सत्ता में बैठ कर वो बहुत माल खा रहा ।
यह बात भी कहीं तो उछाला करे कोई ।।
आ जाइये हुजूर जरा अब ज़मीन पर ।
कब तक ज़मीं से चाँद निहारा करे कोई ।।
ख़ुशियाँ हज़ार लौट के आ जायेंगीं ज़रूर ।
थोड़ा सा बस्तियों में उजाला करे कोई ।।
मंदिर में सर झुकाएं या मस्ज़िद में सज़दा हो ।
लेकिन ख़ुदा को दिल में भी ढूढा करे कोई ।।
इतना भी मत सहो कि सितम दिलही तोड़ दे ।
तुमको यतीम जान सताया करे कोई ।।
इजहारे इश्क़ आप नही कीजिये जनाब ।
इस उम्र में न साथ गुजारा करे कोई ।।
वो मैकदे को पी के लियाकत दिखाएंगे ।
बस मुफ्त में ही जाम पिलाया करे कोई ।।
बूढा हुआ है बाप ज़रा शर्म तो करो ।
कब तक तुम्हारा बोझ उठाया करे कोई ।।
नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
इस उम्दा ग़ज़ल के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर |
आ0 बसन्त कुमार साहब बहुत बहुत आभार ।
आदारणीया नीलम उपाध्याय जी सादर नमन रचना तक आने के लिए सप्रेम आभार ।
वाह बेहद लाजबाब रचना आदरणीय, आनन्द आ गया
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, नमस्कार। सम-सामयिक विषय पर बहुत ही शानदार रचना के लिए मुबारकबाद।
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