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लट जाते हैं पेड़- एक गीत

राह किसी की कहाँ रोकते,

हट जाते हैं पेड़

इसकी, उसकी, सबकी खातिर,

कट जाते हैं पेड़

 

तपन धूप की खुद सह लेते

देते सबको शीतल छाया.

पत्ते, छाल, तना, जड़, सब कुछ,

लुटा रहे हैं पूरी काया.

 

पत्थर भी सह, फल देने को,

पट जाते हैं पेड़.  

 

किसने रोपा किसने पाला,

कोई भी खाता कब रखते.

पात झरे, शाखाएँ टूटी,

सहा सभी कुछ हँसते हँसते.

 

उठें सहन में दीवारें, सँग,

सट जाते हैं पेड़.

होते फूल और फल कम जब,

सबके मन को कहाँ सुहाते.

साथ उम्र के बढती मुश्किल,

साँस नहीं खुल कर ले पाते.  

 

कंकरीट में कैदी होकर,

लट जाते हैं पेड़

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 21, 2018 at 12:35pm

आदरणीय Shyam Narain Verma जी हृदय तल से आभार आपका 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 21, 2018 at 12:34pm

आदरणीय समर कबीर जी, रचना को आपका आशीष मिला, हृदय गदगद हो गया, आपका बहुमूल्य सुझाव शिरोधार्य है सादर नमन आपको, इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें.

Comment by babitagupta on June 21, 2018 at 12:26pm

पेड़ो की हालाते वयां  करती कविता,जिसमे पेड़ो द्वारा अपना सर्वस्य देने के बाद भी वो किसी अपने लिए कुछ नही मांगते.बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सरजी.

Comment by Neelam Upadhyaya on June 21, 2018 at 11:23am

आदरणीय बसंत कुमार जी,  बहुत ही सुन्दर  रचना का सृजन । प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।   आदरणीय समर कबीर जी की राय  से मैं भी सहमत हूँ। 

Comment by Shyam Narain Verma on June 21, 2018 at 11:16am
इस सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें । सादर
Comment by Samar kabeer on June 20, 2018 at 10:16pm

जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह, कितना सुंदर गीत लिखा आपने, मज़ा आ गया,इस प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।

'कोई भी हिसाब क़ब रखते'

इस पंक्ति की लय शायद 15 मात्रा होने के कारण बाधित हो रही है,इसे:-

"कोई भी खाता क़ब रखते"

करना उचित होगा क्या?

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