पर्वत जैसे दिन कटें ,रातें लगती भारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
अधरों पर मुस्कान है,उर के भीतर ज्वाला|
पीनी पड़ती सब्र की ,भीतर भीतर हाला||
बिस्तर पर जैसे बिछी,द्वी धारी कुल्हारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
सरहद से आई नहीं, अबतक कोई पाती|
जल जल आधी हो गई,इन नैनों की बाती||
चौखट पर बैठी रहूँ देखूँ बारी बारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
शीत लहर में हो गई,तन की डाली रूखी|
उर के आँगन की लगे , तुलसी सूखी सूखी||
स्वप्न यान से भेज दो,थोड़ी धूप उधारी|
प्रीत रीति के खेल में,ऐ साजन मैं हारी||
भारत माँ के फर्ज़ से, फुर्सत कभी मिले जो|
पवन परों में बांधकर,महक बदन की भेजो||
तेरी खुशबू से हरी, होगी मन फुलवारी|
प्रीत रीति के खेल में,ऐ साजन मैं हारी||
-----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको गीत पसंद आया दिल से आपका बहुत बहुत शुक्रिया .
आद० तेजवीर सिंह जी ,आपको गीत पसंद आया मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभार आपका .
आद० रक्षिता जी ,आपको ये गीत पसंद आया आपका दिल से आभार .
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,
विरह की अग्नि में दग्ध विरहिणी की व्यथा को व्यक्त करता अच्छा गीत । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी।बेहतरीन गीत।
सरहद से आई नहीं, अबतक कोई पाती|
जल जल आधी हो गई,इन नैनों की बाती||
चौखट पर बैठी रहूँ देखूँ बारी बारी|
प्रीत रीति के खेल में ,ऐ साजन मैं हारी||
आदरणीया राजेश जी,
विरह को प्रस्तुत करती इस खूबसूरत रचना के लिए बहुथ बहुत बधाई।।
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