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लघुकथा - गिरगिट –

लघुकथा - गिरगिट –

"गुरूजी, आपकी इस अपार सफलता का भेद क्या है? पिछले बाईस साल से राजनीति में आपका एक छ्त्र राज है"?

गुरूजी ने दाढ़ी खुजलाते हुए, गंभीर मुद्रा बनाने का नाटक करते हुए उत्तर दिया,

"मित्रो, राजनीति बड़ी बाज़ीगरी का  धंधा है। अपनी लच्छेदार बातों से लोगों को मंत्र मुग्ध करना होता है| इसमें सफल होना इतना सरल नहीं जितना दिखता है"।

"गुरूजी, हम तो आपके अंध भक्त हैं, कुछ गुरूमंत्र दीजिये जो भविष्य में हमारे काम आ सके"?

"पहली चीज़ तो यह गाँठ बाँध लो कि इसमें गुरू और भक्त कुछ नहीं होता। अगर ऐसा सोच कर चलोगे तो कभी आगे नहीं बढ़ पाओगे। अवसर की तलाश में रहो। जैसे ही मौक़ा मिले, आगे वाले को मारो धक्का और कुर्सी पकड़ लो"।

 "गुरूजी,यदि आगे वाला अपना ही कोई खास हो तो"?

 "राजनीति में कुर्सी से ज्यादा कोई खास नहीं होता"।

"गुरू जी, ऐसे तो अपने ही दल में अपनी छवि खराब हो जायेगी"?  एक महिला कार्यकर्ता ने भी प्रश्न दाग दिया|

"हमारे पास उसका भी एक कारगर इलाज़ है”|

"वह क्या है गुरूजी"?

"हर क़दम पर गिरगिट की तरह रंग़ बदलने की कला"।

मौलिक एवम अप्रकाशित

 

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Comment by TEJ VEER SINGH on November 11, 2017 at 8:03pm

हार्दिक आभार आदरणीय सलीम राज़ा रीवा साहब जी।

Comment by SALIM RAZA REWA on November 11, 2017 at 5:45pm
वाह साहब वाह बहुत दिनो बाद कोई ऐसी लघुकथा हुई,
जिसे बार बार पढ़ने का दिल किया, आ. तेजवीर जी दिली मुबारक़बाद एक एक शब्द ख़ूबसूरत.... "राजनीति में कुर्सी से ज्यादा कोई खास नहीं होता"। वाह.........
Comment by TEJ VEER SINGH on November 11, 2017 at 5:34pm

हार्दिक आभार आदरणीय राहिला आसिफ़ जी।

Comment by Rahila on November 11, 2017 at 3:39pm
बहुत सारगर्भित रचना आ.सर जी!आजकल तो गिरगिटों को भी अपनी काबिलियत पर शक़ होने लगा है नेताओं को देखकर।सादर

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