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ग़ज़ल -- इस्लाह हेतु / ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को / दिनेश कुमार

2122--1212--22

ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को
हक़परस्ती है सिर्फ़ रोने को

दिल को पत्थर बना लिया मैंने
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को

दूर मंज़िल है वक़्त भी कम है
कौन कहता है तुम को सोने को

एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को

किस लिये हैं इन आँखों में आँसू
पास भी क्या था जब कि खोने को

ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को

दाग़ कुछ ऐसे भी हैं दामन पर
अश्क कम पड़ गए हैं धोने को

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Afroz 'sahr' on October 16, 2017 at 3:37pm
वाह वाहहह दिनेश जी बहुत बहुत मुबारकबाद सादर,,,
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 16, 2017 at 3:20pm

बहुत खूब आ. दिनेश जी
एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को... इस शेर से मोमिन खान मोमिन याद आ गए
ग़ज़ल के लिए बधाई

Comment by SALIM RAZA REWA on October 16, 2017 at 1:52pm
भाई दिनेश कुमार सुंदर ग़ज़ल के लिए मुबारक़बाद.
Comment by vandana on October 16, 2017 at 1:42pm


एक बस वो नहीं हुआ मेरा
क्या नहीं होता वर्ना होने को

किस लिये हैं इन आँखों में आँसू
पास भी क्या था जब कि खोने को

ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को

बहुत खूब आदरणीय दिनेश जी 

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