(122-122-122-12)
रहे हम तो नादां ये क्या कर चले
कि दौर ए जफ़ा में वफ़ा कर चले।
वो तूफ़ान के जैसे आ कर चले
मेरा आशियाना फ़ना कर चले।
रक़ीबों की तारीफ़ की इस क़दर
कि चहरा मेरा ज़र्द सा कर चले'
कहीं जाग जाएँ न इस ख़ौफ़ से
हम आँखों में सपने सुला कर चले
ज़मीं हमको बुज़दिल का ताना न दे
तो फिर हम ये नज़रें उठा कर चले।
तड़पते रहे अधजले कुछ हरूफ़
वो जब मेरे खत को जला कर चले।
बताओ मुझे नींद आएगी क्या
कि वो मेरा बिस्तर बिछा कर.... चले।
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कहीं जाग जाएँ न इस ख़ौफ़ से
हम आँखों में सपने सुला कर चले
तड़पते रहे अधजले कुछ हरूफ़
वो जब मेरे खत को जला कर चले।
बताओ मुझे नींद आएगी क्या
कि वो मेरा बिस्तर बिछा कर चले।
जनाब गुरप्रीत सिंह जी, ये तीनों अशआर ख़ासतौर से पसंद आए. दाद क़ुबूल करें, सादर.
आदरणीय गुरप्रीत भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल कही है जो आवश्यक सुधार के बाद और बेहतरीन हो गई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
जी बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी,,, आपके सुझावों के अनुसार ग़ज़ल में बदलाव करता हूँ
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