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ग़ज़ल - अगर विरोधों मे फँस जायें तो दंगा तो है ही ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22  22 ( बहरे मीर )

ज्यूँ तालों में रुका हुआ पानी, गंदा तो है ही 

राजनीति में नीति नहीं तब वो धंधा तो है ही

 

अब भाषा की मर्यादा छोड़ें, गाली भी दे लें

अगर विरोधों मे फँस जायें तो दंगा तो है ही

 

दिखे केसरी, हरा न दीखे. तो फिर कानूनों में

घुसा हुआ कोई बन्दा निश्चित अंधा तो है ही

 

डरो नहीं ऐ भारतवासी पाप करम करने में

मैल तुम्हारे धोने को अब माँ गंगा तो है ही

 

सारे झूठे , हाथों में पत्थर ले कर निकलें हैं

अगर मिला ना सच्चा कोई ये बन्दा तो है ही

 

फोकट डर के आप करें न मन छोटा कर्ता के

देश विदेशों से आया आखिर चंदा तो है ही

 

ये संस्कारी है तो इसको ही सुननी है बातें

उसका क्या है वचन करम से वो नंगा तो है ही

*************************************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on September 2, 2016 at 8:12pm

मोहतरम जनाब गिरिराज    साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है , शेर दर शेर  दाद और  मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं 

Comment by Samar kabeer on September 2, 2016 at 7:56pm
इस मिसरे को यूँ कर लिया जाये तो कैसा रहेगा:-
"डरो नहीं भारत के लोगों पाप करम करने में"

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2016 at 4:50pm

आदरनीय समर भाई , इंतिज़ार ही सही रहेगा । वैसे मुझे अब भी भारतवासी कहना सही  लग रहा है , वासियों बोल चाल मे स्वीकार कर लिया गया होगा ।  भारत वासियों मुझे जज़्बातों जैसा प्रयोग लग रहा है । लेकिन दावा कुछ भी नही है ।

Comment by Samar kabeer on September 2, 2016 at 4:26pm
जनता, भीड़, ठीक है लेकिन अगर 'भारतवासी'भी ठीक है तो "भारतवासियों"क्यों कहा जाता है, हिंदी शब्दों के बारे में मुझे ज्ञान कम है,इसलिये तो में आपसे मालूम करना चाहता हूँ,या फिर हम गुणीजनों का इंतिज़ार करते हैं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2016 at 4:08pm

आदरनीय समर भाई , गज़ल की सराहना कर उत्साहवर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।

//"डरो नहीं ऐ भारतवासी //   आदरणीय मै व्याकरण का इतना अच्छा जानकार नहीं हूँ कि दावे के साथ अपनी बात रख सकूँ - लेकिन मेरा अन्दाजा है कि ये गलत नही है --
कुछ शब्द स्वयँ मे बहुवचन के रूप मे प्रयुक्त हो ते हैं   -- जैसे , जनता , भीड़  मेरे खयाल वैसे ही वासी भी स्वयँ मे एक वचन और बहुवचन दोनो रूप मे प्रयुक्त होता है , इसे और बहुवचन बनाने की ज़रूरत नही है । लेकिन ये सब मेरा अन्दाज़ा ही है , आप कोई बात पूर्णता से कह सकें तो मुझे बदलाव मे कोई आपत्ति नही है ।  आपका आभार !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2016 at 4:00pm

आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by Samar kabeer on September 2, 2016 at 2:20pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत उम्दा और शानदार ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
"डरो नहीं ऐ भारतवासी पाप करम करने में"
इस मिसरे में कुछ शंका है,कृपया समाधान करें,"डरो"शब्द बहुवचन की तरफ़ है, और "भारतवासी"एक वचन में है, मेरे विचार से 'डरो'की जगह 'डर'होना था या ,भारतवासी'की जगह "भारतवासियों" होना था,आप क्या कहते हैं इस बारे में ?
Comment by Sushil Sarna on September 2, 2016 at 12:22pm

दिखे केसरी, हरा न दीखे. तो फिर कानूनों में
घुसा हुआ कोई बन्दा निश्चित अंधा तो है ही

डरो नहीं ऐ भारतवासी पाप करम करने में
मैल तुम्हारे धोने को अब माँ गंगा तो है ही

वाह वर्तमान को चित्रित करती इस हृदयग्राही ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आ. गिरिराज जी भाई साहिब।

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