बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, आपकी कई ग़ज़लें होती हैं जिन्हें भाव के स्तर पर पढ़ते हुए पाठक चाहे तो उसकी पंक्तियों को जी सकता है. यह ग़ज़ल भी कुछ ऐसी ही ग़ज़ल है. दिल से मुबारकबाद कुबूल करें, आदरणीय.
यह अवश्य है कि बन्द कर के कमरे को.. में कर के जैसा प्रयोग ठीक नहीं है. यह तो आप भी जानते हैं. भले ही लोग ऐसा बोलते हैं. इसे बन्द कर दें पल्ले को.. किया जा सकता है. कोठरी और कमरा साथ-साथ कहना उचित होगा क्या ? या, आप जो उचित समझें.
दूसरे, आखिरी शेर के उला में शिकस्ते नार’वा का दोष है, आदरणीय. कृपया देख लें.
सादर
aa0आ० पहले कोठरी फिर कमरा , क्या माजरा है . गजल हेतु मुबारकवाद .
शुक्रिया कल्पना जी
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय समर साहब। आप ठीक कह रहे हैं इस बह्र में २१२ १२२२ के बाद ब्रेक होना आवश्यक है जो पाँचवें शे’र के उला मिसरे में नहीं हो रहा है। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
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