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इक उम्र जी जाती हूँ ....

इक उम्र जी जाती हूँ ....

उसके जाने के बाद मैं
कितनी बेख़बर सी हो गयी हूँ
नींदें सुहाती नहीं
यादें सुलाती नहीं
आईना बेगाना सा लगता है
अक्स भी अंजाना सा लगता है
लिबास बदलूं
तो किस के लिए
शाम-ओ-सहर उदासियों के
मंज़र कहर ढाते हैं
ज़िस्म पर लम्स के अहसास
कतरनों से सजे नज़र आते हैं
चलती हूँ तो न जाने
कितने लम्हे साथ चलते हैं
एक आहट के इंतज़ार में
काफिले अश्कों के पिघलते हैं
शब् तो अब भी होती है मगर
अब हर करवट तन्हा सी होती है
अब बिस्तर पे
कोेई सलवट भी नहीं होती
अब तकियों पे
सावन के निशान होते हैं
अश्क यादों के पासबान होते हैं
बंद पलकों के दरीचों में
वो रूठे ख़्वाबों से चले आते हैं
मैं लाख न नुकर करती हूँ
वो हौले से मुझे सहलाते हैं
मैं तन्हाई के कफ़स में
आखिर टूट जाती हूँ
फ़रेब ही सही मगर
इक लम्हे में मैं
इक उम्र जी जाती हूँ


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on March 9, 2016 at 2:16pm

आ.तेज वीर सिंह जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। 

Comment by Rahila on March 9, 2016 at 12:20pm
ये रचना बहुत दिल को छू जाने वाली थी, बहुत बार पढ़ी शायद खुद इसके करीब पाया इसलिये । बहुत बधाई इस शानदार प्रस्तुति के लिये आदरणीय सर जी! सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 9, 2016 at 11:48am

हार्दिक बधाई

Comment by TEJ VEER SINGH on March 8, 2016 at 9:46pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

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