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पहचान - डॉo विजय शंकर

  हीरा - क्या ज़माना आ गया , लोगों को बताना पड़ता है , मैं हीरा हूँ , हीरा। बड़ा महंगा होता ही हीरा।

          मेरी चमक दूर दूर तक जाती है. कभी राज के राज तबाह हो जाते थे हमारे लिए.

          एक नज़र हमें देख कर लोग अपने नसीब को सराहते थे।
         रानी - राजकुमारियों को हमारे हार ही सुहाते थे।
         ( आह भर कर ) अब तो जैसे कोई हमें चाहता ही नहीं। पहचानता भी नहीं.    

   कोयला - हाँ भाई , बात तो सही है, पर मेरे भाई , वक़्त वक़्त की बात होती है, अब तो हमारा ज़माना है.
             कहीं भी रहें कालिख छोड़ते हैं, एक हाथ से दूसरे में जाएँ , दोनों को काला करते हैं।
             हमारी दलाली में लोग बदनाम भी होते हैं, फिर भी खूब करते हैं.
             राज तो हम भी पलट देते हैं.
             और हाँ, ( थोड़ा हस कर ) हमें अपनी पहचान किसी को बतानी नहीं पड़ती। क्या राजा क्या रंक सब हमें जाने हैं. 

       मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 7, 2015 at 8:54pm

आदरणीय विनय कुमार जी, आपका आभार एवं धन्यवाद, सादर।  

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 7, 2015 at 8:53pm

आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी, आपका आभार एवं धन्यवाद, सादर।  

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 7, 2015 at 7:18am

क्या बात है!आ० विजय सर!सुन्दर लघुकथा हुयी है!हार्दिक बधाई !सादर.

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 7, 2015 at 5:52am

वाह वाह क्या बात है ...अब कालख में ही चमक है ....सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 7, 2015 at 3:08am

गजब का तंज कसा है सर आपने लघुकथा में. बहुत-बहुत बधाई आपको

Comment by maharshi tripathi on June 6, 2015 at 7:34pm

सही कहा आपने आ.Dr. Vijai Shanker जी ,,,बिल्कुल वर्तमान परिस्थित से मेल खाती ,,,,आपको बधाई |

Comment by विनय कुमार on June 6, 2015 at 6:46pm

अच्छी प्रतीकात्मक लघुकथा आदरणीय.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 1:10pm

अ० विजय  सर

बहुत बढ़िया . सादर.

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