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तरही ग़ज़ल....-महिमा श्री

1.बरसों के बाद खुद को यूँ पहचान तो गया

 सीने में दफ्न इश्क जुनूं जान तो गया

2.बीती तमाम उम्र तेरी  आरज़ू में बस

 चाहत भरा सफ़र हो ये अरमान तो गया

3.हमको कहाँ खबर थी कि दिल हार जाएगें

  छो़ड़ो चलो कि दिल तेरे कुर्बान तो गया

4.मांगा खुदा से जिसको था सजदों में बारहा

 मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया

5. हमसे न हो सके थे जमाने के चोंचले

सब खुश हुए कि दौड़ से नादान तो गया

यह भी कि------------

6. बेशक ज़मीर बेच के कुर्सी बचाई है

 हांथों से उसके आज लो ईमान तो गया

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

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Comment by vandana on April 1, 2015 at 8:26pm

2.बीती तमाम उम्र तेरी ही आरज़ू में बस

 चाहत भरा सफ़र हो ये अरमान तो गया

3.हमको कहाँ खबर थी कि दिल हार जाएगें

  छो़ड़ो चलो कि दिल तेरे कुर्बान तो गया

वाह आदरणीया महिमा जी बहुत खूब 

चौथे शेर के  मिसरा ऊला में बारहा शब्द दोष उत्पन्न कर रहा है कृपया इसे पुन: देख लीजिये 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 1, 2015 at 1:13pm

आदरणीय  महिमाश्री

बेह्तरीन गजल  .  मुशायरे में पोस्ट होनी चाहिए थी .  सुन्दर .  सादर.

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 31, 2015 at 9:15pm
बेशक ज़मीर बेच के कुर्सी बचाई है
हांथों से उसके आज लो ईमान तो गया
वाह, सच्चाई का क्या खूबसूरत बयान, बहुत खूब, बधाई, आदरणीय सुश्री महिमा श्री जी, सादर।
Comment by Sushil Sarna on March 31, 2015 at 8:37pm

6. बेशक ज़मीर बेच के कुर्सी बचाई है
हांथों से उसके आज लो ईमान तो गया
.... वाह आदरणीया बहुत ही उम्दा पेशकश है आपकी … इस खूबसूरत पेशकश पर तहे दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं।

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