प्रेम अगन करती सदा, चेतन का विस्तार
रोम-रोम तप भाव-तन, धरे नवल शृंगार
मैं-तुम भेद-विभेद हैं, मायावी मद भ्राम
द्वैत विलित अद्वैत सत, चिदानन्द अविराम
सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य
गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य
डॉ० प्राची
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
प्रिय महिमा जी
आपको यह भावाभिव्यक्ति पसंद आयी...जानना संतोषकारी है
धन्यवाद
दोहों का सनातन भाव सराहने के लिए आभार आ० लक्ष्मण जी
दोहों की अन्तर्दशा पर आपकी आश्वस्त करती टिप्पणी और अनुमोदन केलिए आपकी आभारी हूँ आ० नीरज 'नीर' जी
दोहों के भाव आपको पसंद आये आ० जितेन्द्र जी, ये मेरे लिए संतोष का विषय है
आपका धन्यवाद
दोहावली की सार्थकता को अनुमोदित कर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार आ० राजेश कुमारी जी
दार्शनिक भावाभिव्यक्ति के लिए बधाई प्रेषित है ..बहुत ही सुंदर दोहें आदरणीया प्राची जी
आदरणीय सोमेश कुमार जी
इन दोहों के भावार्थ को अपने शब्दों में आपसे जो मान मिला है उसके लिए नत भाव से आपकी आभारी हूँ
बहुत सुंदर सनातन भाव रचित दोहे | जिन पर डॉ गोपाल नारायण जी और श्री नीरज कुमार "नीर" जी की टिपण्णी
गहन समीक्षात्मक आ चुकी है | आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी
इन दार्शनिक भावों से संपृक्त उत्कृष्ट दोहों के लिए हार्दिक बधाई।
योग की परम अवस्था को दर्शाती इन पंक्तियों :
सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य
गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य
के क्या कहने, कितनी सुंदरता से इतनी गूढ बात कह दी ॥
और अद्वैत के सिद्धांत को प्रतिष्ठापित करती इन पंक्तियों के क्या कहने :सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य
गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य ॥
बहुत खूब। बहुत बधाई ।
बहुत सुंदर भाव.अनुपम दोहावली, आदरणीया डा.प्राची जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें
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