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हत्या ( अतुकांत चिंतन ) गिरिराज भन्डारी

कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से

जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं

या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है

किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये

 

ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी

नोच सकें किसी के मन की शांति

उतार सकें , बिखरा सकें

विचारों के , भावों के समत्व को

अन्दर के प्यार को , ममत्व को  

छितरा सकें मन की शांति  

ताकि  टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व

किसी को कानो कान पता न चले और शिकार घायल

 

बिना किसी दृश्य हथियार के , ख़ामोश साजिशों से

निर्दोष सी लगने वाली क्रियाओं से

या सोद्देश्य निष्क्रियता से

 

ये सब भी एक हथियार ही हैं , ख़ामोश, अदृश्य , सटीक मारक शक्तियों से युक्त

कोई छोटी मोटी बात नहीं होती इसे हासिल करना

यूँ ही प्राप्त नही होती ये ख़ासियतें , शक्तियाँ

सतत अभ्यास की ज़रूरत होती है , साधना है ये भी

 

लेकिन, ये अच्छी बात है  

यह साधना भी अब दिख जाती है , यदा कदा  

बहुत हैं साधना रत , कुछ साध भी चुके हैं

क्योंकि, हर सफलता बधाई योग्य होती है , सकारात्मक हो या नकारात्मक

सो , बधाइयाँ , उन सभी को

एक बात और ,

हत्या केवल शरीर की हत्या को समझना अधूरी समझ है ,

क्या ऐसा नहीं है ?

***********************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2014 at 7:20am

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , चिंतन मे आपको कुछ सार नज़र आया , बड़ी खुशी हुई , अनुमोदन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2014 at 7:18am

आदरणीय जितेन्द्र भाई , चिंतन के मुखर अनुमोदन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:49pm

हत्या केवल शरीर की हत्या को समझना अधूरी समझ है ,

क्या ऐसा नहीं है ?-----बिलकुल सही कहा हत्या सिर्फ जिस्मानी ही नहीं होती रूहानी भी होती है जो सबसे बड़ी दर्दनाक होती है वो कई रूपों में होती है ....बहुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति ,बधाई आपको आ० गिरिराज जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 4, 2014 at 6:53pm

मित्र / सर यही  है कि केवल जान से मर देना हत्या नहीं है  i हम जीवन में कई बार हत्या करते है पर उसका हमें भान नहीं  होता क्योंकि संवेदना मर चुकी है i  बहुत सुन्दर i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 4, 2014 at 1:07pm

सर्वप्रथम आपकी लेखनी को नमन आदरणीय गिरिराज जी.  आज के जीवन को देखा जाए तो आपका चिंतन सटीक है, रोज होती है ऐसी हत्याएं इसके बाद भी इंसान जीता है शायद  जीवन एक साधना है . कई लोग निर्दोष मुखड़ा चढ़ाकर करते है ये हत्या जिससे अस्तित्व ख़त्म हो जाता है. इस हत्या के बाबजूद भी जीना पड़ता है  क्या किया जाय इंसान के ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां जो होती है.

आपने बहुत ही बढ़िया रचना साझा की, आपको ह्रदय से बधाई

सादर!

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